स्कूली शिक्षा की बदहाली उजागर करने वाले एक और सर्वेक्षण

विगत तीन माह में देश में स्कूली शिक्षा से जुड़ी तीन रिपोर्ट प्रस्तुत हुई हैं। उन सभी में भारतीय स्कूली शिक्षा पद्धति पर प्रश्नचिन्ह लगाए गए हैं। इनमें पहली रिपोर्ट कारपोरेट जगत यानि विप्रो और एजूकेशन इनीशिएटिव से जुड़ी है, जिसमें उन्होंने पाया कि देश के प्रसिद्ध स्कूलों तक का शिक्षा का स्तर अच्छा नहीं है, क्योंकि वे रटने-रटाने पर अधिक जोर देते हैं। दूसरी रिपोर्ट आर्थिक सहयोग और विकास संगठन की ओर से एक जांच परीक्षा के तहत प्रस्तुत की गई है। इसमें भारत को 73 देशों की सूची में अंतिम पायदान से पहले यानी 72 पर रखा गया है। इस सर्वे में भारत के आठवीं कक्षा के बच्चों का स्तर दक्षिण कोरिया के तीसरी कक्षा तक तथा चीन के दूसरी कक्षा के बच्चों के समान पाया गया। तीसरी सबसे ताजा रिपोर्ट एक गैर सरकारी संस्था प्रथम द्वारा एनुअल स्टेट्स आफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर)-2011 के रूप में तैयार की गई है। इसे हाल ही में केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने जारी किया है। यह ग्रामीण भारत से जुड़े स्कूलों व उनमें अध्ययनरत बच्चों से जुड़ा देश का यह सबसे बड़ा वार्षिक सर्वेक्षण है। असर-2011 का निष्कर्ष यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में स्कूली बच्चों के नामांकन में पिछले एक साल में उल्लेखनीय वृद्धि के फलस्वरूप शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट दर्ज की गई है। हिंदी क्षेत्रों से जुड़े स्कूलों की स्थिति तो और भी चिंताजनक है। इस रिपोर्ट में साफ संकेत हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में 6 से 14 वर्ष की उम्र के 96 फीसदी से भी अधिक बच्चे स्कूलों में नामांकन कराने लगे हैं, परंतु सरकारी स्कूलों की तुलना में प्राइवेट स्कूलों में बच्चों का नामांकन लगातार बढ़ रहा है। रिपोर्ट के निष्कषरें से यह तथ्य भी संज्ञान में आया है कि ग्रामीण क्षेत्र में यदि प्राइवेट स्कूल उपलब्ध हैं तो माता-पिता वहीं बच्चों को प्रवेश दिलाना ज्यादा पसंद करते हैं। हालांकि गुजरात, पंजाब तथा दक्षिण के राज्यों में तुलनात्मक स्थिति में सुधार हुआ है। जहां तक बच्चों के गणित की समझ का प्रश्न है, इसमें सभी बच्चों का प्रदर्शन कमजोर हुआ है। यदि दक्षिण के कुछ राज्यों को छोड़ दें तो देश के अन्य राज्यों में सरकारी स्कूली शिक्षा की दशा निराशाजनक ही रही है। स्कूली शिक्षा की तीसरी सबसे बड़ी समस्या बच्चों की उपस्थिति को लेकर उजागर हुई है। बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति में 2007 की तुलना में 2011 में 7 से लेकर 9 फीसदी तक की कमी आई है। ट्यूशन पढ़ने के मामले में भी सरकारी स्कूलों की स्थिति बहुत खराब है। यह सर्वेक्षण आगे स्पष्ट करता है कि सरकारी स्कूलों में शिक्षक-छात्र अनुपात में वृद्धि लगभग नगण्य रही है तथा ढांचागत सुविधाओं में भी कोई खास वृद्धि नहीं हो पाई है। स्कूलों में भवन की स्थिति आज भी ऐसी है कि जहां कई-कई कक्षाएं एक साथ लगानी पड़ रही हैं। हालांकि केंद्र सरकार ने देश में स्कूली शिक्षा की बदतर स्थिति के लिए राज्य सरकारों को दोषी ठहराया है। यह किसी हद तक इसलिए ठीक है, क्योंकि शिक्षा के ढांचे को सुधारने की जिम्मेदारी राज्यों की ही है, परंतु देखने में आया है कि शिक्षा का अधिकार कानून बनने के डेढ़ साल बाद भी राज्य सरकारें गंभीर नहीं हैं। देश में लाखों शिक्षकों के पद आज भी रिक्त पड़े हैं। ऐसी परिस्थितियों में देश में प्राथमिक शिक्षा की ढांचागत गुणवत्ता का अनुमान स्वत: ही लगाया जा सकता है। देश में प्राथमिक शिक्षा की बढ़ती मांग के अनुरूप अनुमानित बजट का जो प्रावधान किया जाता रहा है वह निश्चित ही इतना कम है कि राज्य सरकारें सदैव ही बजट की कमी का रोना रोते हुए अल्पवेतन अथवा ठेके पर शिक्षा कर्मियों की भर्ती करते हुए प्राथमिक शिक्षण की खानापूर्ति करती रही हैं। देश की आजादी के बाद हमारा यह स्वप्न था कि यहां बुनियादी शिक्षा अपने राष्ट्र की जड़ों से जुड़ते हुए अपने स्वदेशी मूल्यों, संस्कारों व परंपराओं का पोषण करेगी, परंतु यहां राष्ट्रीय विकास के लिए जिस विदेशी मॉडल का अनुकरण किया गया उससे हमारी मातृभाषा से जुड़ी प्राथमिक शिक्षा पृष्ठभूमि में चली गई और मैकाले शिक्षा पद्धति से जुड़ी अंग्रेजी शिक्षा आत्मसम्मान का साधन बन गई। यह आश्चर्य की बात है कि देश में सरकारी प्राथमिक शिक्षा की इतनी बदतर स्थिति होने के बावजूद भी देश की संसद को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा कानून बनाने में छह दशक से भी अधिक लग गए। देश में बुनियादी शिक्षा के ढांचे के लगातार कमजोर होने का दुष्परिणाम यह हो रहा है कि उससे हमारी माध्यमिक व उच्च शिक्षा भी अपेक्षित परिणाम नहीं दे पा रही है। सही बात यह है कि प्राथमिक शिक्षा देश की रीढ़ है, माध्यमिक शिक्षा उस विकास की रीढ़ को स्तंभित करने का माध्यम है और उच्च शिक्षा राष्ट्र के विकास को उत्कृष्टता की ओर ले जाने वाली संस्था है। उच्च शिक्षा के स्तर पर भी भारत की स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है। देश के सरकारी स्कूलों से पब्लिक स्कूलों में बच्चों का लगातार पलायन तथा बढ़ती ट्यूशन की प्रवृत्ति देश की बुनियादी शिक्षा की दरकती दीवारों का संकेत है। इस सच से इंकार नहीं किया जा सकता कि मध्यान्ह भोजन, यूनीफार्म, साइकिल और पाठ्य पुस्तकों के लालच से सरकारी स्कूलों में प्रवेश बढ़े हैं, परंतु क्या प्राथमिक शिक्षा का उद्देश्य मात्र स्कूलों में प्रवेश में वृद्धि तक ही सीमित रहना चाहिए। देश की प्राथमिक शिक्षा में योग्य व प्रतिबद्ध शिक्षकों और इसके बुनियादी तंत्र को श्रेष्ठता के आधार पर विकसित करने की जरूरत है। इसके अलावा पाठ्यक्रम को रोचक तथा उसे बच्चे के व्यक्तित्व तथा देश के स्वभाव के अनुकूल बनाने के साथ-साथ सड़ी गली सरकारी बुनियादी शिक्षा में नवीनता के साथ में बड़े परिवर्तन लाने की भी महती आवश्यकता है। (लेखक समाजशास्त्र के प्राध्यापक हैं) 1ी2श्चश्रल्ल2ी@Aंॠ1ंल्ल.Yश्रे

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