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प्री बजट सीरीज
मनरेगा से गांवों में बढ़ता निठल्लापन, छोटे कारोबारियों और किसानों को नहीं मिल रहे मजदूर
मनरेगा में काम के नाम पर गड्ढे खोदे गए। छह साल में 1,50,000 करोड़ खर्च किए गए।
-मिहिर शाह कमेटी की रिपोर्ट
> पैसा बांटा जा रहा है, कोई कारगर इस्तेमाल नहीं
> छोटे कारोबारियों को मजदूरों की किल्लत हो रही
> छोटे कारोबार खत्म हो जाएंगे
> सरकार उधार लेकर मनरेगा जैसी स्कीमों पर खर्च कर रही
ग्रामीण रोजगार का सबसे बढिय़ा कार्यक्रम मगर सब ठीक नहीं। चोरियां हो रही हैं। 2011-12 में सिर्फ 54 फीसदी ही खर्च हो सका। इसका ढांचा बदलने की जरूरत।
-प्रोफेसर अभिजीत सेन,
योजना आयोग सदस्य
सीएजी ने भी लीकेज माना है। बगैर डिलीवरी मैकेनिज्म के गरीब परिवार के नाम पर 40,000 हजार करोड़ खर्च करना ठीक नहीं।
-जगदीश शेतिगर,
अर्थशास्त्री
क. यतीश राजावत
प हली कड़ी में हमने पढ़ा कि सरकार की आमदनी कम है इसलिए वह उधार लेकर खर्च कर रही है
। सरकार का सबसे ज्यादा खर्च गांव और गरीबों के नाम पर चलाई जाने वाली योजनाओं पर होता है। इन योजनाओं में सबसे बड़ी योजना है मनरेगा। मनरेगा की असलियत क्या है यह जानना जरूरी है क्योंकि खर्च सरकार का है, पर पैसा तो आपका है।
मनरेगा का उद्देश्य एक साल में कम से कम 100 दिन रोजगार देना था। यह 40 हजार करोड़ रुपए की योजना है। और सरकारी आकड़ों के मुताबिक सिर्फ 55 प्रतिशत हकदार तक पहुंचता है। यानी कि 16 से 17 हजार करोड़ रुपए का इस योजना में बंदरबांट हो जाता है। मगर शायद बाकी पैसा भी असल गरीब तक नहीं पहुंचता और सरपंच और बीडीओ के स्तर पर ही खा लिया जाता है।
इतना पैसा आने की वजह से गांव की पंचायतें भी बदल रही हैं। अब से पहले सरपंच ज्यादातर आपसी सहमति से तय हो जाते थे। मगर मनरेगा और ऐसी कई योजनाओं के चलते अब हजारों- लाखों रुपए खर्च होते है पंचायत चुनावों में। सरपंचों को आज से पहले मोटरसायकिल में पेट्रोल डालने के पैसे नहीं थे अब वे बड़ी गाडिय़ों में घूम रहे है। बीडीओ तो स्कॉर्पियो-इनोवा के नीचे नहीं चलते। मनरेगा में इतनी चोरी इसलिए है क्योंकि न तो कोई परियोजना दिखानी होती है और न ही उसे पूरा करना होता है। बस पैसा बांटना होता है। जैसे कि भीख बांटी जाती है। कहने के लिए रोजगार दिया जा रहा है, न तो काम की कोई अपेक्षा होती है, न परियोजना की पूर्णता होती है और न ही उसका कोई लेखा-परीक्षण। जब देनेवाले को कुछ दिखाना नहीं, लेने वाले को मुफ्त में पैसा मिल रहा है तो चोरी क्यों नहीं होगी? मगर ऐसे खर्चे से न तो कोई परिसंपत्ति बनती है ना भविष्य में कोई रोजगार पैदा होता है।
पर मजदूर को घर पर बैठने कि आदत जरूर पड़ जाती है। लगातार आलोचना के बाद योजना आयोग सदस्य मिहिर शाह ने पिछले हफ्ते मनरेगा को नया रूप दिया। शाह की रिपोर्ट के मुताबिक मनरेगा की सबसे बड़ी उपलब्धि है कि इसने मजदूरों का पलायन रोक दिया हैै। यह सच है मजदूरों ने गांव छोड़कर बाहर जाना बंद कर दिया है। क्योंकि जब बिना मजदूरी किए घर में पैसा मिले तो बाहर काम ढूंढऩे की क्या जरूरत? इसका सीधा असर पड़ा है पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तरप्रदेश, गुजरात और मध्यप्रदेश में जहां अब कटाई और बुवाई के लिए मजदूर नहीं मिल रहे। यही नहीं छोटे कारोबारियों पर भी इसकी मार पड़ रही है। उनके कारखाने बंद हैं और कारोबार ठप हो रहे हैं मजदूरों की किल्लत से। यानी कारोबार जो रोजगार देते थे या एक श्रमिक को कारीगर में बदलते थे वो अब नहीं हो रहा। छोटे कारोबार देश में रोजगार का सबसे बड़ा जरिया है, इनका बंद होना चिंता का विषय है न सिर्फ रोजगार के लिए पर विकास के लिए भी। मिहिर शाह की दूसरी दलील है कि मनरेगा के व्यय की वजह से ही 2008 से लेकर आज तक उद्योग जगत के उत्पादों की मांग बढ़ी है। मांग जरूर बढ़ी है मोबाइल फोन के लिए, डीवीडी प्लेयर्स के लिए, यहां तक मोटरसायकिल और कार के लिए भी। मगर इस तरह की मांग सस्टेनिबल (टिकाऊ) नहीं है और ना ही किी उद्योग को इस पर ज्यादा निर्भर रहना चाहिए।
नए मनरेगा में सरकार ने पैसा बांटने का अपना उद्देश्य और साफ कर दिया। नए मनरेगा के मुताबिक नया नारा है - "काम मांगेंगे तब मिलेगा"। पूरी योजना में परियोजना को उनके पूरा होने को कोई तवज्जो नहीं दी गई है। शायद सरकार का यह मानना है कि पैसे बांटने से 2014 के चुनाव में वोट मिलेंगे। छोटे उद्योगों के बंद होने से चीन को फायदा होगा। राजस्थान, पंजाब, गुजरात और हरियाणा में किसानों को मजदूर न मिलना खेती की लागत बढ़ाएगा और खाद्यान्न की कीमतें बढ़ाएगा।
अगर यह 40,000 करोड़ रुपए बांटने की जगह समझदारी से उपयोगी और मजदूरों की कार्यकुशलता बढ़ाने में किया जाता तो गरीब खैरात पर ही निर्भर नहीं रहते, बल्कि अंतत: अर्थव्यवस्था को भी तेजी मिलती।
(लेखक दैनिक भास्कर समूह के प्रबंध संपादक हैं)
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