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विभाग का फरमान

बिना मान्यता चल रहे 1372 निजी स्कूल बंद करने का शिक्षा विभाग का फरमान हजारों बच्चों पर भारी पड़ सकता है। यह शिक्षा क्षेत्र में अस्थिरता बढ़ा कर सरकार की नीतियों पर एक और प्रश्नचिन्ह चस्पां कर सकता है। शिक्षा का अधिकार कानून 2009 की शर्तो को पूरा नहीं करने वाले इन स्कूलों का भाग्य क्या होगा, यह तो अंतिम निर्णय आने के बाद ही पता लगेगा क्योंकि नए फरमान में बहुत सी गुंजाइशें छोड़ी गई हैं। मान्यता का खेल तो एक दशक से चल रहा है, हर वर्ष कोई अस्थायी आधार बना कर मोहलत दी जाती रही। अब विधिवत रूप से आदेश जारी करके स्कूल बंद करने को कहा गया। उम्मीद जताई जा रही है कि फिर कोई पेंच भिड़ा कर मोहलत मिल ही जाएगी और स्कूल बंद नहीं होंगे। नीति की चंचलता सरकारी फैसलों को किसी एक बिंदु पर नहीं टिके रहने देती। वर्तमान आदेश में शिक्षा का अधिकार कानून के तहत स्कूलों में जिन मापदंडों को पूरा करने की बात कही गई है वे तमाम तो हरियाणा शिक्षा अधिनियम में भी बेहद स्पष्ट तौर पर उल्लिखित हैं। उन्हें पूरा करने के लिए कभी संजीदगी नहीं दिखाई गई। भूमि, खुले हवादार कमरे, खेल मैदान, पुस्तकालय, शिक्षक-छात्र अनुपात, विकलांगों के लिए रैंप आदि मापदंडों के आधार पर मान्यता रोकने, फिर एक वर्ष के लिए मोहलत देने का सिलसिला चलता रहा। अब शिक्षा का अधिकार कानून के नियम 134 ए के तहत 15 फीसद गरीब बच्चों को निश्शुल्क दाखिले की शर्त भी निजी स्कूल संचालकों की सांस फुलाएगी। गंभीर सवाल है कि बिना मान्यता व अनुमति के वर्षो से स्कूल चलने का शिक्षा विभाग को पता है फिर भी बंद नही किया जा सका। अब एकाएक ऐसी कौन सी बाध्यता आ गई कि सत्र के बीच में स्कूलों को बंद करने का फरमान जारी करना पड़ा। उन हजारों बच्चों व अभिभावकों की मन: स्थिति का भी ध्यान रखा जाना चाहिए था जो इस फरमान से आशंकित हैं। मान्यता नीति को सुस्पष्ट व स्थिर किया जाना बेहद जरूरी हो गया है। राजनैतिक प्रभाव इसमें बड़ी भूमिका निभा रहा है। इस दखलंदाजी को सख्ती से रोक दिया जाता तो दस साल पहले ही मान्यता का मुद्दा सुलझ जाता। नियमों का उल्लंघन करने वाले स्कूल संचालकों पर लगातार सख्ती की जाए तथा विभाग की नीतियों में व्यावहारिकता व दीर्घकालिक दृष्टिकोण दिखाई देना चाहिए।

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