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प्रयोगवाद के साइड इफेक्ट्स
सरकार व शिक्षा विभाग के दावों के विपरीत ऐसे प्रमाण सामने आ रहे हैं जो गंभीर चिंता का विषय होने के साथ नीतियों की पुनर्समीक्षा की आवश्यकता महसूस करवा रहे हैं।
शिक्षा का स्तर अपेक्षित न हो पाने और परीक्षा परिणाम में
किसी हद तक शर्मनाक स्थिति पैदा होने से
शिक्षा व्यवस्था की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिन्ह चस्पां हो रहा है।
हरियाणा बोर्ड की दसवीं और बारहवीं की सेमेस्टर परीक्षा में 50
सरकारी स्कूलों के सारे विद्यार्थी फेल हो जाने से शिक्षक भी संदेह
के घेरे में आ रहे हैं। दसवीं में 44 और बारहवीं में छह स्कूलों का एक
भी बच्चा उत्तीर्ण नहीं हुआ। 104 स्कूलों का परिणाम दस प्रतिशत से
कम रहा। एक अन्य पहलू पर भी गौर किया जाना चाहिए।
शिक्षा का अधिकार कानून के तहत आठवीं तक के बच्चों को फेल
नहीं किया जा सकता, उनके लिए सर्वागीण सतत मूल्यांकन
प्रक्रिया का सहारा लिया जाता रहा है। इसमें अध्यापक पर
ही बच्चे के आकलन का दायित्व रहा। शिक्षा विभाग ने इस
प्रक्रिया की सार्थकता और
प्रभावशीलता को व्यावहारिकता की कसौटी पर परखने
की कभी कोशिश नहीं की। अब इसमें नया पेंच जोड़ते हुए विभाग ने
बच्चों की योग्यता के आकलन के लिए बुकलेट के माध्यम से मूल्यांकन
आरंभ कर दिया जो कतई व्यावहारिक नहीं, हां हास्यास्पद जरूर है।
इसमें जमकर फर्जीवाड़ा भी हो सकता है। विभाग के एक और
अतार्किक प्रयोग से शिक्षा का आधार ही कमजोर होगा। विभाग
को इस प्रवृत्ति से छुटकारा पाने की गंभीर कोशिश करनी चाहिए।
उदाहरण सामने है कि सतत मूल्यांकन प्रक्रिया के अव्यावहारिक होने
के कारण आठवीं तक के बच्चों का शिक्षा आधार कमजोर हो रहा है
जिसकी झलक दसवीं और बारहवीं के परीक्षा परिणामों में साफ
दिखाई दे रही है। शिक्षा का अधिकार कानून देश में सबसे पहले लागू
करने का दावा करने वाली सरकार को इसके साइड इफेक्ट
का भी आकलन पहले करना चाहिए था। योजना लागू करने
का उतावलापन सरकार को अक्सर असहज स्थिति में पहुंचा देता है।
सरकार को अपने नए प्रयोग को उन 50 स्कूलों के परिणाम के साथ
जोड़ कर देखना चाहिए जहां सभी बच्चे फेल हो गए। आशंका यह भी है
कि बुकलेट योजना कहीं ऐसे स्कूलों की संख्या बढ़ा न दे।
शिक्षा विभाग की नीतियों की पुनर्समीक्षा में सरकार
को अधिक विलंब नहीं करना चाहिए क्योंकि यह उसकी साख और
प्रदेश के शिक्षा तंत्र की विश्वसनीयता से जुड़ा सीधे जुड़ा है, अधिक
देरी से नुकसान ही बढ़ेगा।
शिक्षा का स्तर अपेक्षित न हो पाने और परीक्षा परिणाम में
किसी हद तक शर्मनाक स्थिति पैदा होने से
शिक्षा व्यवस्था की प्रासंगिकता पर प्रश्नचिन्ह चस्पां हो रहा है।
हरियाणा बोर्ड की दसवीं और बारहवीं की सेमेस्टर परीक्षा में 50
सरकारी स्कूलों के सारे विद्यार्थी फेल हो जाने से शिक्षक भी संदेह
के घेरे में आ रहे हैं। दसवीं में 44 और बारहवीं में छह स्कूलों का एक
भी बच्चा उत्तीर्ण नहीं हुआ। 104 स्कूलों का परिणाम दस प्रतिशत से
कम रहा। एक अन्य पहलू पर भी गौर किया जाना चाहिए।
शिक्षा का अधिकार कानून के तहत आठवीं तक के बच्चों को फेल
नहीं किया जा सकता, उनके लिए सर्वागीण सतत मूल्यांकन
प्रक्रिया का सहारा लिया जाता रहा है। इसमें अध्यापक पर
ही बच्चे के आकलन का दायित्व रहा। शिक्षा विभाग ने इस
प्रक्रिया की सार्थकता और
प्रभावशीलता को व्यावहारिकता की कसौटी पर परखने
की कभी कोशिश नहीं की। अब इसमें नया पेंच जोड़ते हुए विभाग ने
बच्चों की योग्यता के आकलन के लिए बुकलेट के माध्यम से मूल्यांकन
आरंभ कर दिया जो कतई व्यावहारिक नहीं, हां हास्यास्पद जरूर है।
इसमें जमकर फर्जीवाड़ा भी हो सकता है। विभाग के एक और
अतार्किक प्रयोग से शिक्षा का आधार ही कमजोर होगा। विभाग
को इस प्रवृत्ति से छुटकारा पाने की गंभीर कोशिश करनी चाहिए।
उदाहरण सामने है कि सतत मूल्यांकन प्रक्रिया के अव्यावहारिक होने
के कारण आठवीं तक के बच्चों का शिक्षा आधार कमजोर हो रहा है
जिसकी झलक दसवीं और बारहवीं के परीक्षा परिणामों में साफ
दिखाई दे रही है। शिक्षा का अधिकार कानून देश में सबसे पहले लागू
करने का दावा करने वाली सरकार को इसके साइड इफेक्ट
का भी आकलन पहले करना चाहिए था। योजना लागू करने
का उतावलापन सरकार को अक्सर असहज स्थिति में पहुंचा देता है।
सरकार को अपने नए प्रयोग को उन 50 स्कूलों के परिणाम के साथ
जोड़ कर देखना चाहिए जहां सभी बच्चे फेल हो गए। आशंका यह भी है
कि बुकलेट योजना कहीं ऐसे स्कूलों की संख्या बढ़ा न दे।
शिक्षा विभाग की नीतियों की पुनर्समीक्षा में सरकार
को अधिक विलंब नहीं करना चाहिए क्योंकि यह उसकी साख और
प्रदेश के शिक्षा तंत्र की विश्वसनीयता से जुड़ा सीधे जुड़ा है, अधिक
देरी से नुकसान ही बढ़ेगा।
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