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जैसी संभावना थी, हरियाणा कर्मचारी चयन
आयोग यानी के चेयरमैन और सदस्यों को पद से हटा कर व राज्य स्कूल
शिक्षक भर्ती बोर्ड को भंग करके सरकार ने प्रशासनिक, शैक्षिक क्षेत्र
में आधारभूत बदलाव लाने, इन्हें व्यावहारिक, प्रगतिशील रूप देने
का संकेत दे दिया है। एचएसएससी में भर्ती लगातार विवादों में
रही पर पिछली सरकार को विपक्ष के सबसे
ज्यादा हमलों का शिकार शिक्षक भर्ती बोर्ड पर होना पड़ा था।
सीधे आरोप लगे कि बिना किसी संहिता, आधार के चहेतों,
संबंधियों को ऊंचे पद देकर उपकृत किया गया। यहां तक
कहा गया कि वास्तव में मानक तो तय ही नहीं किए गए,
उनकी अनुपालना का कोई मतलब ही नहीं। मनोहर लाल मंत्रिमंडल
का फैसला सराहनीय कहा जाएगा कि आयोग और बोर्ड में भर्ती अब
कालेजियम के माध्यम से होगी और वास्तविक पात्र को ही पद
दिया जाएगा। पिछली सरकार की सबसे बड़ी विफलता शिक्षा के
मोर्चे पर रही थी। इसका स्पष्ट प्रमाण है कि 15 हजार से अधिक
अतिथि अध्यापक आज मझधार में हैं, वर्तमान में उनकी नौकरी पर
तलवार लटक रही है और भविष्य अंधकार में है।
स्थायी शिक्षकों की नियुक्ति का महत्व पिछली सरकार
को आया पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। अध्यापक भर्ती के अनेक
मामले अदालतों में लंबित हैं। 2011 में जेबीटी भर्ती में
फर्जीवाड़ा सामने आ चुका। लगभग दो हजार उम्मीदवारों के अंगूठे के
निशान मेल नहीं खा रहे। अंगूठा लगाने की परंपरा शुरू करने
वाली सरकार उसके पालन में गंभीरता क्यों नहीं दिखा पाई?
स्थायी शिक्षकों की भर्ती से परहेज करना था तो शिक्षक
भर्ती बोर्ड के गठन का औचित्य क्या था? केवल चहेतों की किस्मत
चमकाने के लिए खजाने पर इतना बोझ लादने की क्या जरूरत थी? यह
कैसे सोच लिया गया कि इस बोर्ड के बिना काम ही नहीं चलेगा?
व्यवस्था और विभाग की खामियों का असर आज शिक्षा क्षेत्र पर
साफ देखा जा सकता है। हजारों पद खाली हैं , दसवीं और
बारहवीं का परीक्षा परिणाम सभी की चिंता बढ़ा रहा है। नई
सरकार से यह अपेक्षा तो की ही जानी चाहिए
कि पुरानी गलतियों की पुनरावृत्ति न हो। साथ ही सरकार
का यह अहम दायित्व है कि शिक्षा नीति में स्थायित्व
उसकी सर्वोच्च प्राथमिकता में शामिल होना चाहिए। प्रशासनिक
स्तर पर भी पूर्ण पारदर्शिता अपेक्षित है। सुनिश्चित किया जाए
कि खामी रहित नीति बने ताकि सरकार, आयोग, बोर्ड
या निकाय के फैसले अदालतों में न घिसटते फिरें। सरकार की साख व
विश्वसनीयता हर स्तर पर बरकरार रहे।
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