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सरकार 250 राजकीय प्राइमरी स्कूलों का रखरखाव निजी संस्था भारती फाउंडेशन को सौंपने जा रही है। इससे पूर्व सीएम सिटी करनाल में छह ऐसे स्कूलों का जिम्मा इस संस्था को सौंपा जा चुका है। सरकार ने शिक्षा स्तर और गुणवत्ता में सुधार की प्रतिबद्धता जताई है पर इसके साथ ही साथ ही कुछ सवाल भी स्वत: उठ खड़े हुए हैं। सरकार का मानना है कि सभी सुविधाएं होने के बावजूद अन्य राजकीय स्कूलों के विद्यार्थी निजी क्षेत्र के मॉडल स्कूलों की अपेक्षा काफी पीछे हैं। सवाल है कि प्रतिबद्धता विरोधाभासी क्यों नजर आ रही है? अलग राज्य बनने के 48 साल बाद भी शिक्षा क्षेत्र के पिछड़ेपन के कारणों व कारकों की पहचान क्यों नहीं हो पाई? एक तरफ राज्य सबसे तेज गति से विकास कर रहा है पर शिक्षा क्षेत्र में हरियाणा देश के शीर्ष 15 राज्यों में भी शामिल क्यों नहीं? सरकारी स्कूलों पर भरपूर संसाधन खर्च होने के बावजूद अधिकतर बच्चों की पहली पसंद निजी स्कूल क्यों हैं? सरकार व शिक्षा विभाग स्वयं स्वीकार कर रहा है कि खर्च सही दिशा में नहीं हो रहा, इसी कारण परीक्षा परिणामों में लगातार गिरावट आ रही है, प्रतिस्पर्धात्मक दक्षता नहीं आ रही, शिक्षा गुणवत्तापरक नहीं हो पा रही। गंभीर विषय यह है कि आखिर ऐसा कब तक चलेगा? नए निर्णयों से यह तो दर्शाया गया कि सरकार बदलाव और सुधार के प्रति बेहद गंभीर है लेकिन क्या सुधार का यही अंतिम विकल्प शेष बचा है? अध्यापक संघों की आशंका किसी हद तक जायज है कि विभाग अपनी खामियों पर पर्दा डालने के लिए शिक्षा क्षेत्र का निजीकरण करने की मंशा रखता है। सरकार के लिए सबसे जरूरी है कि व्यवस्था की खामियों को तत्काल पहचाने और कमजोर कड़ियों को दूर करने के लिए वृहद, समयबद्ध और परिणानोन्मुखी योजना तैयार करे। वैसे बेहतर होता यदि सरकारी शिक्षा क्षेत्र को उन्नत और गतिशील रूप देने के लिए निजी क्षेत्र का आंशिक तौर पर सहारा लिया जाता, विशेष प्रशिक्षण और मार्गदर्शन लिया जाता और फिर उसी के अनुसार क्रियान्वयन में गंभीरता दिखाई जाती। ढाई सौ स्कूलों का पूरा तंत्र निजी हाथों में सौंप देना तार्किक और व्यावहारिक नहीं माना जा सकता। सरकारी शिक्षा ढांचे का स्वरूप बदलने और नए दौर में इसे स्थापित करने के प्रयासों में अधिक विलंब नहीं होना चाहिए। अनर्गल प्रयोगों से पिछली सरकार को कई बार असहज स्थिति का सामना करना पड़ा था, नई सत्ता को वैसी गलतियां दोहराने से बचना चाहिए।
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