फसल बीमा योजना किसानों का विरोध


भास्कर न्यूज | चंडीगढ़- प्रधानमंत्रीफसल बीमा योजना को बेहतर बनाने में सरकार ने भले ही कितना भी प्रचार किया हो, लेकिन किसानों को यह योजना ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाई। यही वजह रही कि 16 लाख 60 हजार किसानों में से मात्र छह लाख किसान ही योजना में शामिल हुए। इस तरह से किसानों के हिस्से का जो प्रीमियम 300 करोड़ रुपए जुटाना था, वह 100 करोड़ रुपए के आंकड़े तक ही पहुंच पाया। हालांकि सरकार ने योजना लेने के लिए दो बार तारीख भी बढ़ाई थी। पहले यह तिथि 31 जुलाई थी जिसे बढ़ा कर 10 अगस्त तक प्रीमियम भरने की तारीख थी।
प्रगतिशील किसान प्रमोद चौहान, योगेश कुमार, श्याम सिंह, हरपाल सिंह सुखपाल सिंह ने बताया कि उनके बैंक एकाउंट से पैसे जबरदस्ती काटे गए हैं। कोआपरेटिव सोसायटी ने उनसे पूछा तक नहीं। किसान सुखपाल ने बताया कि उसके तो दो जगह से पैसे काट लिए गए हैं।
सांसद कुमारी सैलजा ने राज्यसभा में उठाया मुद्दा
इधरकुमारी सैलजा ने राज्यसभा में यह मामला उठाते हुए सरकार पर निजी बीमा कंपनियों को लाभ पहुंचाने का आरोप लगाया है। उन्होंने कहा कि इस योजना में हर जगह किसान के हितों की अनदेखी हो रही है। जितना पैसा सरकार कंपनियों को दे रही है, उतना तो फसल का मुआवजा भी नहीं बनता। साफ है कि सरकार का एजेंडा कुछ अलग है। उन्होंने मांग की कि सरकार फसल बीमा योजना में प्रति किसान प्रति एकड़ को ही इकाई माने। यदि ऐसा नहीं होता तो यह योजना किसानों के लिए कोई लाभ देने वाली नहीं है।
जबरदस्ती क्यों, योजना अच्छी होती तो किसान खुद ही बीमा कराते : अशोक अरोड़ा
इनेलोके प्रदेशाध्यक्ष अशोक अरोड़ा ने कहा कि पहली बार देखा है कि सरकार में रहते हुए कोई मंत्री बीमा कंपनियों के लिए पैदल यात्रा निकाल रहा है। यदि पॉलिसी इतनी ही अच्छी है तो इसे किसानों पर छोड़ दिया जाए। जबरदस्ती प्रीमियम काट कर करीब 100 करोड़ रुपए इकट्ठे किए गए हैं।
गांव को इकाई बनाने पर
1.किसान को नहीं बल्कि पूरे गांव को इकाई माना गया। गांव में 75 फीसदी फसलों को ही नुकसान होने पर मुआवजे का हकदार माना जाएगा।
आकलनके तरीके पर
2.नुकसानहोने की स्थिति में आकलन के लिए पारंपरिक तरीका ही रखा गया। जिसमें बीमा कंपनियों के साथ सरकारी विभाग के प्रतिनिधियों को शामिल किया जाना है।
जबरनप्रीमियम काटने पर
3.जो भी किसान फसल ऋण लेता है, उसके खाते से बीमा की प्रीमियम राशि अनिवार्य रूप से काटी गई। किसान संगठनों का तर्क है कि यह स्वैच्छिक होना चाहिए।

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