क्या सचमुच नई पीढ़ी की बौद्धिक क्षमता सर्वोच्च स्तर तक पहुंच गई है? दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले के लिए निर्धारित कट ऑफ का प्रतिशत 2013 में कुछ विषयों में सौ फीसदी तक पहुंच गया


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danik bhaskar editorial
शिक्षा से जुड़े इतने सारे प्रश्न हैं कि उन सबकी चर्चा एक साथ कभी संभव नहीं होती। यह भी एक पीड़ादायक सत्य है कि जीवन के अन्य क्षेत्रों के संबंध में जितना विचार-विमर्श होता है उतना शिक्षा के संबंध में नहीं होता जबकि शिक्षा संपूर्ण व्यवस्था का आधार है। शिक्षा बिना व्यक्तित्व का विकास नहीं, समुचित शिक्षा के बिना सही व्यवस्था-तंत्र का निर्माण नहीं और जीवन के अन्य क्षेत्रों में जिस विकास की हम अपेक्षा करते हैं वह भी संभव नहीं।

जीवन दृष्टि की अनेक विसंगतियों के कारण शिक्षा के प्रति यह अगंभीर दृष्टिकोण है। शिक्षा के क्षेत्र में कई ऐसे प्रश्न हैं जिन पर विचार की आवश्यकता है जैसे ज्ञान के तमाम नए द्वार खुले हैं, लेकिन ये द्वार कौन से हैं, क्यों हैं और किसके लिए हैं? मनुष्य के मन में क्या है यह मनुष्य समझेगा या मशीन समझाएगी और क्या जो मशीन समझाएगी, हम वही मानेंगे? क्या कृत्रिम प्रतिभा नैसर्गिक प्रतिभा का स्थान ले सकती है? मैं यहां कुछ प्रश्नों पर विचार कर शेष प्रश्न कालदेवता पर छोड़ता हूं।

माना जाता है कि आने वाली पीढ़ी पिछली पीढ़ी से अधिक बुद्धिमान, जागरूक और कल्पनाशील होती है। तमाम अध्ययन कहते हैं कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद से हर पीढ़ी में बौद्धिक स्तर (आईक्यू) लगातार बढ़ रहा है। भारत इसका अपवाद नहीं हो सकता। कम से कम परीक्षा में मिलने वाले अंक और प्रतिशत इसी ओर इशारा करते हैं। हालांकि कई बार यह हास्यास्पद हो जाता है। जैसे दिल्ली विश्वविद्यालय में दाखिले के लिए निर्धारित कट ऑफ का प्रतिशत 2013 में कुछ विषयों में सौ फीसदी तक पहुंच गया। सवाल उठता है कि क्या सचमुच नई पीढ़ी की बौद्धिक क्षमता सर्वोच्च स्तर तक पहुंच गई है? क्या यह पीढ़ी 60-62 फीसदी हासिल करने वाली पीढ़ी से वाकई 40 फीसदी आगे निकल गई है? या परीक्षा के मानदंड बदल गए हैं?

न्यूजीलैंड के ओटागो विश्वविद्यालय के समाजशास्त्री प्रोफेसर जेसलिन मानते हैं कि कच्चा बौद्धिक स्तर (रॉ आईक्यू) हर दशक में तीन अंक बढ़ रहा है। इस रफ्तार से उसे 100 फीसदी हो ही जाना था। 1970 के इस अध्ययन पर अब सवाल उठ रहे हैं। मेरे विचार से यह पूरा सच नहीं है। हमारी जानकारी में कुछ नई इबारतें जुड़ गई हैं, जो पहले नहीं थीं और केवल इसी अर्थ में हम आगे निकल गए दिखते हैं। अमेरिका के प्रसिद्ध शिक्षाविद निकोलस कार अपनी किताब 'द शैलोज' में कहते हैं कि हम चीजों को टुकड़ों में देखने, खांचों में बांटने और रूढ़ प्रतीकों को समझने में महारत हासिल कर रहे हैं, लेकिन स्मरण शक्ति, शब्द भंडार, सामान्य ज्ञान और मामूली गणित में हम काफी पिछड़ गए हैं। इन क्षेत्रों में हम वहीं हैं जहां सौ साल पहले थे। यह कहना गलत नहीं होगा कि टेक्नोलॉजी के तमाम उपकरण और कंप्यूटर दिमाग को मशीन की तरह प्रयोग में लाने वाली वस्तु बना देते हैं। इसमें आंकड़े, प्रतीक और खांचे होते हैं। आप मशीन की तरह, एक छोटे पुर्जे के रूप में उससे जुड़ जाते हैं। सवाल उठता है कि क्या नई टेक्नोलॉजी मसलन इंटरनेट हमारे पढऩे और सोचने की क्षमता को प्रभावित कर रहा है? कभी-कभार ऐसा भी लगता है कि हम बहुत तेजी के साथ नई दुनिया में जाने के चक्कर में रास्ता भटक रहे हैं, क्योंकि यह आशंका भी है कि कहीं अतिमशीनीकरण, सोचने-समझने, विचार करने और गहराई में उतरकर चीजों को देखने की हमारी क्षमता को लगातार शिथिल करते हुए हमें पंगु न बना दे। यह चिंता सिर्फ मेरी नहीं है, सबकी है या होनी चाहिए अन्यथा शिक्षा और प्रतिभा या बुद्धिमत्ता का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। निकोलस कार भी इसी ओर इशारा करते हैं कि अगर हम नहीं सुधरे तो कृत्रिम बौद्धिकता मशीन में नहीं बल्कि इंसान में होगी।

भारतीय समाज-व्यवस्था और शिक्षा में ज्ञानार्जन और संग्रहण मूलत: इस बात पर निर्भर करता है कि आपने कितना सुना और कितना याद रखा। सब कुछ श्रुति, आवृत्ति और स्मृति से नियंत्रित होता रहा है और भारत का सांस्कृतिक विकास इसी पर टिका हुआ है। विचार इसी की अगली सीढ़ी है, जिससे हम अपनी समस्याओं का समाधान ढूंढ़ते हैं। छोटे लक्ष्य और तात्कालिक सोच से आगे बढ़ती दुनिया में दूरगामी वैचारिकता का महत्व बढ़ जाता है, जिसके सतत विकास का रास्ता अपनाना होगा। यह रास्ता मशीनी नहीं हो सकता, क्योंकि विचार कारखानों में नहीं बनते।

विचार करना, सोचना कितना जरूरी है, इस संदर्भ में मुझे उस व्यक्ति की आत्मकथा याद आती है, जिसने अपनी उच्च शिक्षा पूरी नहीं की, लेकिन आज वह बेहद कामयाब और विश्व के सबसे अमीर लोगों में से एक है। बिल गेट्स कॉलेज से लौटकर सीधे तहखाने के अपने गैराज में चले जाते थे। घंटों वहीं बैठे रहते थे। एक दिन गेट्स की मां ने ाने के लिए आवाज दी। गेट्स ने पुकार नहीं सुनी तो मां ने पूछा, 'तुम कर क्या रहे हो?' तहखाने से जवाब आया, ' मैं सोच रहा हूं, मां।'

उस तहखाने में कंप्यूटर नहीं था। सोच थी। मशीन बाद में आई। यानी वास्तविक बौद्धिकता ने कृत्रिम बौद्धिकता गढ़ी और उसे आगे बढ़ाया। होना भी यही चाहिए, लेकिन इसका उल्टा भी हो रहा है। यह चिंताजनक है। इंग्लैंड की सबसे बड़ी शैक्षिक परीक्षण कंपनी (एड एक्सेल) ने सालभर पहले यह घोषणा भी की कि वह परीक्षा में लिखे गए निबंधों को जांचने, उनका मूल्यांकन करने का काम कृत्रिम बौद्धिकता वाली एक मशीन को सौंप रही है। मशीन ंिनबंध पढ़कर छात्रों को अंक देगी और विचार, भाषा तथा व्याकरण की दृष्टि से उसका मूल्यांकन करेगी। यह न केवल चिंता की बात है, बल्कि खतरनाक है।

हर मशीन, मशीन होती है। एक निश्चित नियम के अनुसार चलती है, लेकिन कोई भी मशीन फैसला नहीं कर सकती है। वह केवल वही सोच सकती है, जितना उसे बताया गया है। अगर कोई छात्र या छात्रा स्थापित विचारों से आगे की सोच रहे हों तो मशीन क्या करेगी। अगर उसकी मेधा उपलब्ध ज्ञान से आगे तक जाती हो तो भी मशीन उसे अयोग्य और अक्षम करार देने के अलावा क्या कर सकती है। ऐसे में उन संस्थानों और विश्वविद्यालयों का क्या होगा, जिनका लक्ष्य प्रतिभा को संवद्र्धित करना और आगे बढ़ाना है। उनकी उपेक्षा ही होगी, जिसकी शुरुआत हो भी चुकी है। अपने देश में उच्च शिक्षा पर पहले आयोग का गठन 1948 में हुआ था। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस आयोग का अध्यक्ष डॉ. राधाकृष्णन को बनाया था। बाद में 1964 में कोठारी आयोग बना। राधाकृष्णन आयोग ने अपनी रिपोर्ट अगले साल 1949 में दी, जिसमें उन्होंने कहा कि शिक्षा को ऐसा बनाना होगा कि वह 'सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक बदलाव का प्रभावी औजार बन सके, जिससे हम अपने राष्ट्रीय लक्ष्य प्राप्त कर सकें।'

दूसरा और अंतिम भाग 2 जनवरी के अंक में... 

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