संकट में साख * भर्ती और नियुक्ति प्रक्रिया में सरकार की प्रवृत्ति और मनोवृत्ति पर उसी के वरिष्ठ अधिकारी द्वारा अंगुली उठाए जाने से यह चिंतन व मंथन जरूरी हो गया है कि नियम और कानूनों को रबर की तरह मरोड़ने की परंपरा खत्म होगी भी या नहीं। वर्तमान सरकार के अब तक के कार्यकाल में एक दर्जन से अधिक मामलों में भर्ती या नियुक्ति में अनियमितता, नियमों के उल्लंघन और मनमर्जी चलने की बात सामने आ चुकी। अनेक नियुक्तियां कोर्ट के आदेश पर रद हुईं और कई मामले अदालत में विचाराधीन हैं जिनमें हजारों कर्मचारी, शिक्षक आदि का भविष्य या तो अंधकारमय हुआ या अधर में लटक गया। वर्तमान मामला चूंकि हाई प्रोफाइल है, इस पर सरकार का कटघरे में आना गंभीर चिंता का विषय है। प्रशासनिक सुधार विभाग के सचिव ने सीधे तौर पर सरकार को लपेटते हुए खुलासा किया कि नवगठित सेवा अधिकार आयोग और सूचना आयुक्तों की नियुक्ति में जालसाजी की गई। जिन्हें भी नियुक्ति दी गई वे पहले से लाभ के पद पर कार्यरत हैं और नियमों के अनुसार उनकी नियुक्ति पूरी तरह अवैध है। खुलासे में नियुक्ति से संबंधी फाइल राज्यपाल से मंजूर न करवाने समेत कई और गंभीर पहलुओं की ओर इशारा किया गया। सवाल यह है कि आखिर ऐसी क्या जल्दी थी कि आनन-फानन में रेवड़ी की तरह इतने अहम पद बांटने पड़े। हर नियुक्ति प्रक्रिया पूरी करने के लिए निश्चित समय दिया जाता है, पर ताजा घटनाक्रम से प्रश्न उठ रहा है कि सेवा एवं सूचना आयुक्तों के मामले में यह सीमा राज्यपाल की सेवानिवृत्ति के दिन तक क्यों रखी गई? क्या सरकार को किसी बात की आशंका थी? क्या उसे अपने निर्णय के कानून सम्मत होने पर संदेह था? नए राज्यपाल के शपथ ग्रहण करने का इंतजार करने की निर्वाचित सरकार से अपेक्षा की जाती है। यह एक दिन, पल या अवसर का मामला नहीं, सरकार के कामकाज व साख से जुड़ा स्थायी सवाल है। इतना उतावलापन दिखाया जाना नीति निर्धारकों की अपरिपक्वता का ही परिचायक है। सरकार को अपनी भर्ती और नियुक्ति पर फिर मंथन करना चाहिए। पिछले दिनों वरिष्ठ अधिकारी खेमका ने सरकार की कार्यशैली पर अनेक सवाल उठाए थे, अब एक और शीर्ष अधिकारी कासनी इस जमात में शामिल हो गए। सरकार अपनी कार्यशैली में सुधार करके सुनिश्चित करे कि यह पांत लंबी न हो। कहीं न कहीं गंभीर खामी है, उसे दूर नहीं किया गया तो उसकी साख पर छिद्रों और धब्बों की संख्या बढ़ती जाएगी।
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