अंतर है अध्यापक और गुरु में.. जानिए अध्यापक और गुरु के फर्क को.-Satish


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अंतर है अध्यापक और गुरु में..
जानिए अध्यापक और गुरु के फर्क को...
हमें बच्चों को ये बताना चाहिए कि अध्यापक क्या है और गुरु क्या है। गुरु का हमारे जीवन में क्या महत्व है। अध्यापक गुरु से कैसे अलग है। गुरु और अध्यापक में से कौन बेहतर है,वगैरह-वगैरह। हालांकि आज बहुत से लोग अध्यापक को ही गुरु समझ लेते हैं। पर बात इतनी सीधी नहीं है। आइए इसे थोड़ा समझते हैं।
दोनों में क्या है फर्क??
गुरु और अध्यापक में फर्क यह है कि अध्यापक सिर्फ अध्ययन कराने से जुड़ा है,जबकि गुरु अध्ययन से आगे जाकर जिन्दगी की हक़ीकत से भी रूबरू कराता है और उससे निपटने के गुर सिखाता है।
अगर इतिहास के पन्नों पर नजर दौड़ायें तो हमें कई जगह पर अपने धार्मिक ग्रंथों और कहानियों में कई जगह पर गुरु की भूमिका,उसकी महत्ता और उसके पूरे स्वरूप के दर्शन हो जाएंगे। महाभारत में श्रीकृष्ण अर्जुन सामने युद्ध के मैदान में गुरु की भूमिका में थे। उन्होंने अर्जुन को न सिर्फ उपदेश दिया बल्कि हर उस वक्त में उसे थामा जब-जब अर्जुन लड़खड़ाते नजर आए। लेकिन आज का अध्यापक इससे अलग है। अध्यापक गुरु हो सकता है पर किसी गुरु को सिर्फ अध्यापक समझ लेना ग़लत है। ऐसा भी हो सकता है कि सभी अध्यापक गुरु कहलाने लायक न हों,हज़ारों में से मुट्ठीभर अध्यापक आपको गुरु मिलेंगे।
हमारे आस-पास मौजूद तमाम लोग,प्रकृति में व्यवस्थित हर चीज़ छोटी या बड़ी,जिससे हमें कुछ सीखने को मिले,उसे हमें गुरु समझना चाहिए और उससे एक शिष्य के नाते पेश आना चाहिए। यूं तो गुरु से ज्यादा महत्वपूर्ण शिष्य है। शिष्य से ही गुरु की महत्ता है। यदि कोई शिष्य उस गुरु से सीखने को तैयार नहीं है तो वह गुरु नहीं हो सकता। गुरुत्व शिष्यत्व पर निर्भर है।
वेदों और पुराणों से भरे अपने सांस्कृतिक देश में यूं तो हमने गुरु के सम्मान में आषाढ़(जून-जुलाई)की पूर्णिमा पर गुरु पुर्णिमा जैसे दिन भी बनाए हैं। यह वेद व्यास के जन्मदिवस पर मनाया जाता है।
वेद व्यास ने चारों वेदों,पुराणों और महाभारत को व्यवस्थित किया। वेद,पुराण हमें जीवन जीने की कला सिखाते हैं। भारतीय संस्कृति वेदों,पुराणों से ही निकली और कालांतर में नए परिधान भी धारण करती गई। यही कारण है कि गुरु को विशेष सम्मान देने के लिए गुरु पूर्णिमा का दिन है।
गुरु के लिए तो हृदय में हमेशा सम्मान रखना ज़रूरी है। गुरु के बिना गति नहीं होती,मतलब गुरु के बिना जीवन की गाड़ी में ब्रेक लग जाता है। गति गुरु से ही है। और हमारे चारों तरफ मौजूद चीजें जो हमें कुछ भी सीख देती हैं,वह हमारी गुरु हैं। इसलिए ज़रूरी है कि टीचर्स डे को अध्यापक दिवस ही समझा जाना चाहिए,गुरु दिवस नहीं। गुरु का ओहदा अध्यापक से बहुत ही ऊंचा है।
टीचिंग एक प्रीपेड सर्विस...
हम बात कर रहे हैं अध्यापक की। आज के समय में अध्यापन एक बिज़नेस,एक प्रोफेशन भर रह गया है। पहले पैसा लेना और फिर पढ़ाना। प्रीपेड सर्विस हो गई है। जो लोग इस तरह से पढ़ा रहे हैं क्या उनके लिए अलग से एक दिन होना चाहिए?? मेरे ख़्याल से तो नहीं होना चाहिए। यदि है तो फिर हर प्रोफेशन के लिए एक दिन होना चाहिए।
देखता हूं कि टीचर्स पढ़ाते हैं,किताबों का रट्टा लगवाते हैं या फॉर्मूला समझाकर सवाल हल करना सिखाते हैं। यह तो पढ़ाना हुआ, गढ़ना न हुआ। गुरु पढ़ाता नहीं, गढ़ता है। गढ़ना का मतलब है उसे एक आकार देना। और गुरु का काम यही है तपाकर उसे एक आकार देकर भविष्य के लिए तैयार करना,ताकि शिष्य कहीं मात न खाए और जीवन में हमेशा चमकता रहे।
गुरु का काम बहुत बड़ा है। माता,पिता,भाई,बहन,तमाम रिश्तेदार,तमाम जानकार,जिनसे हमें दिन में कई बार संपर्क करना पड़ता है,सब गुरु हैं। सबके पास जिन्दगी के अनुभव हैं। हम उनके दैनिक क्रियाकलापों को देखकर ही बहुत कुछ सीखते हैं।

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