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शिक्षा विभाग का तुगलकी फैसला
आदत है कि छूटती नहीं..शिक्षा विभाग का एक और तुगलकी फैसला मजाक का विषय बन गया है। नियम 134 ए के तहत गरीब बच्चों को निजी स्कूलों में निश्शुल्क दाखिले के लिए लिये गए लर्निंग टेस्ट का परिणाम ऐसे समय पर जारी किया गया जब शिक्षा सत्र समाप्त होने में केवल दो माह बचे हैं। दस हजार गरीब बच्चों ने चार माह पहले परीक्षा दी थी। बार-बार स्मरण दिलाए जाने के बावजूद न तो परिणाम जल्द जारी किया गया, न विलंब का कारण बताया गया। माना जा रहा था कि नए सत्र के आरंभ तक परिणाम लटकाया जाएगा। यकायक इसे जारी करके शिक्षा विभाग ने फिर साबित कर दिया कि हवा में तीर छोड़ने और अतार्किक प्रयोग करने में उसका कोई सानी नहीं। कई सवाल उठ रहे हैं। सूची में जिन साढ़े आठ हजार बच्चों के नाम शामिल हैं, उन्हें खुशी दी गई है या दुविधा? क्या यह साजिश तो नहीं कि सत्र के अंत में सूची जारी कर दी, न कोई दाखिला मांगेगा, न ही कोई स्कूल देने की स्थिति में होगा, ऐसे में इन बच्चों की दावेदारी स्वत: समाप्त हो जाएगी। शिक्षा विभाग बताए कि क्या कोई निजी स्कूल इस समय दाखिला देने और पाठ्यक्रम पूरा करवाने के लिए तैयार होगा? क्या बच्चे केवल दो माह में परीक्षा के लिए अपने आपको तैयार कर सकते हैं? क्या अभिभावक इसके लिए तैयार होंगे? 1 आरोप यह भी लगाया जा रहा है कि निजी स्कूलों के दबाव में सूची रोकी गई। कड़वी सच्चाई है कि इस सत्र में स्कूल संचालकों ने जमकर मनमानी की। पूर्व में लर्निग टेस्ट उत्तीर्ण करने वाले दस फीसद बच्चों को भी दाखिला नहीं मिला, जिन्हें मिला भी तो उनसे लगातार फीस का तकादा किया जाता रहा। शिक्षा विभाग को स्पष्ट करना चाहिए कि नई सूची में शामिल जो बच्चे फिलहाल दाखिला नहीं ले पाएंगे, क्या उन्हें नए सत्र में अवसर मिलेगा? अहम मुद्दा यह भी है कि अगले सत्र में दाखिला देने से मना करने वाले स्कूलों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी या नहीं? चालू सत्र में किसी स्कूल संचालक को दंडित करना तो दूर, विभाग की ओर से दबाव तक नहीं बनाया गया। सरकार की नीति और नीयत के प्रति विश्वास का संकट पैदा होना स्वाभाविक है। हां-नां की बिसात पर गरीब बच्चों को मोहरा बनाने का सिलसिला बंद होना चाहिए। विडंबना है कि आश्वासनों की खाली हांडी बार-बार चढ़ाई जा रही है जिसके नीचे न योजना की लकड़ी है, न प्रतिबद्धता की आंच।
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