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सुप्रीम कोर्ट ने जाट आरक्षण रद्द किया, कोर्ट के अनुसार आरक्षण के लिए सामाजिक पिछड़ापन जरूरी
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने जाटों को ओबीसी कोटा के तहत आरक्षण देने के केंद्र के फैसले को रद्द कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि केंद्र का फैसला दशकों पुराने आंकड़ों पर आधारित है और आरक्षण के लिए पिछड़ेपन का आधार सामाजिक होना चाहिए, न कि आर्थिक या शैक्षणिक। कोर्ट ने कहा कि सरकार को ट्रांस जेंडर जैसे नए पिछड़े ग्रुप को ओबीसी के तहत लाना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि हालांकि जाति एक प्रमुख कारक है, लेकिन पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए यह एकमात्र कारक नहीं हो सकती है और जाट जैसी राजनीतिक रूप से संगठित जातियों को ओबीसी सूची में शामिल करना अन्य पिछड़े वर्गों के लिए सही नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने ओबीसी पैनल के उस निष्कर्ष पर ध्यान नहीं देने के केंद्र के फैसले में खामी पाई, जिसमें कहा गया था कि जाट पिछड़ी जाति नहीं है। पिछले साल मार्च में तब की मनमोहन सिंह सरकार ने नौ राज्यों के जाटों को अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी लिस्ट में शामिल किया था। इसके आधार पर जाट भी नौकरी और उच्च शिक्षा में ओबीसी वर्ग को मिलने वाले 27 फीसदी आरक्षण के हक़दार बन गए थे। इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में कई याचिकाएं दायर की गई थीं। मौजूदा नरेंद्र मोदी सरकार ने भी जाटों को ओबीसी आरक्षण की सुविधा दिए जाने के फैसले का समर्थन किया है। लोकसभा चुनाव से पहले 4 मार्च 2014 को किए गए इस फैसले में दिल्ली, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, गुजरात, हिमाचल, बिहार, मध्य प्रदेश, और हरियाणा के अलावा राजस्स्थान (भरतपुर और धौलपुर) के जाटों को केंद्रीय सूची में शामिल किया था।ओबीसी रक्षा समिति समेत कई संगठनों ने कहा था कि ओबीसी कमिशन ये कह चुका है कि जाट सामाजिक और शैक्षणिक तौर पर पिछड़े नहीं हैं जबकि सरकार सीएसआईआर की रिपोर्ट का हवाला देती रही है।
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