पढ़ाई, सफाई और सरकार
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस फैसले पर अमल की उम्मीद रखने में कोई हर्ज नहीं कि सभी सरकारी कर्मचारियों, अधिकारियों, मंत्रियों आदि के बच्चे सरकारी स्कूलों में ही पढ़ें, लेकिन आशंका यही है कि ऐसा नहीं होने दिया जाएगा। इसका
एक प्रमाण तब मिला भी जब उत्तर प्रदेश सरकार ने उस शिक्षक को निलंबित कर दिया जिसकी याचिका पर उच्च न्यायालय ने उक्त फैसला दिया था। उच्च न्यायालय का यह बहुचर्चित फैसला आते ही विरोध और असहमति के स्वर उठने लगे थे। इसमें से कुछ तार्किक भी थे। भले ही इस फैसले को लागू करना संभव न हो, लेकिन इसमें दोराय नहीं कि सरकारी स्कूलों के स्तर को दुरुस्त करने की सख्त जरूरत है। पठन-पाठन के स्तर को ठीक करने के साथ ही पाठ्यक्रम को भी बेहतर बनाना समय की मांग है। हालांकि नई शिक्षा नीति तैयार हो रही है, लेकिन यह कहना कठिन है कि वह स्कूलों में समान पाठ्यक्रम को अनिवार्य बनाने पर जोर देगी। देश भर के स्कूलों में समान पाठ्यक्रम सामाजिक समरसता और समानता का एक व्यापक आधार तैयार कर सकता है, लेकिन पता नहीं क्यों 68 वर्ष बाद भी इसकी जरूरत नहीं समझी जा रही है? कुछ विषयों में क्षेत्रीय महत्व की बातों को प्राथमिकता दिए जाने की रियायत के साथ सभी स्कूलों में एक समान पाठ्यक्रम आसानी से पढ़ाया जा सकता है। समान पाठ्यक्रम के दायरे में निजी स्कूलों को भी लाया जाना चाहिए। यह पाठ्यक्रम इस तरह तैयार किए जाने की जरूरत है जिससे देश की भावी पीढ़ी शिक्षित होने के साथ-साथ संस्कारित भी हो। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि आजादी मिलते ही सामाजिक सुधार के आंदोलन-अभियान शिथिल पड़ गए। एक खराब बात यह हुई कि राजनीतिक दलों ने समाज निर्माण के कार्य को अपने एजेंडे से बाहर कर दिया। 1आज कोई भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं जो सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ मुहिम चलाता हो। किसी भी राजनीतिक दल के घोषणा पत्र में संस्कारवान-चरित्रवान पीढ़ी के निर्माण के लिए दो शब्द भी नहीं मिलते। इसके खतरनाक दुष्परिणाम सामने आए हैं। सरकारी स्कूलों के जिन शिक्षकों से यह अपेक्षित है कि वे पठन-पाठन के स्तर को सुधारें उनमें से कई ऐसे हैं जो खुद स्कूल जाने के बजाय किसी और को कुछ पैसे देकर यह काम सौंप देते हैं। ऐसा देश के कई राज्यों में हो रहा है। इस गोरखधंधे से शिक्षा विभाग के अधिकारी, जिलाधिकारी और मंत्री भी परिचित हैं, लेकिन कहीं कोई कार्रवाई नहीं हो पा रही है। यह शर्मनाक है कि शिक्षक पढ़ाने से तब इंकार कर रहे हैं जब उनका वेतन पहले की तुलना में बेहतर हुआ है। आखिर ऐसे शिक्षक समाज के हितैषी कैसे कहे जा सकते हैं जो अपना काम दूसरों को सौंप दे रहे हैं? जो भी शिक्षक ऐसा कर रहे हैं उनके पास अपने बचाव में कुछ तर्क हो सकते हैं, लेकिन इससे वे खुद को सही नहीं ठहरा सकते। हो सकता है कि आने वाले दिनों में इसकी भी जांच कराई जाने लगे कि स्कूल में उपस्थित शिक्षक वास्तविक है या उसका नुमाइंदा, लेकिन ऐसा दिन दुर्भाग्यपूर्ण ही होगा।1 शहरी और ग्रामीण इलाकों में कई विभागों के सरकारी अधिकारी-कर्मचारी ड्यूटी पर जाने से बचते हैं। कोई हफ्ते में दो-तीन दिन जाता है और कोई महीने में। ऐसा करने वाले सगर्व यह कहते भी हैं कि हमें रोज ड्यूटी जाने की जरूरत नहीं। ऐसे लोग उन लोगों पर बोझ ही नहीं बनते, बल्कि उन्हें हतोत्साहित भी करते हैं जो अपना काम सही तरह कर रहे हैं। कोई भी समाज और राष्ट्र कितना भी संपन्न क्यों न हो वह समस्याओं से पूरी तौर पर मुक्त कभी नहीं हो सकता। इधर अपने देश में यह धारणा बढ़ती जा रही है कि जो भी करना है सरकार को करना है और वह भी केंद्र सरकार को। पिछले दिनों स्वच्छ भारत अभियान में शामिल शहरों की वह सूची सामने आई जिसमें यह बताया गया कि साफ-सफाई के मामले में कौन सा शहर किस पायदान पर है। ग्वालियर के पास का भिंड शहर फिसड्डी शहरों में से एक है। यह तथ्य सामने आने के बाद यहां के एक स्कूल के बच्चों ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर पूछा-हमारा शहर इतना गंदा क्यों है? चिट्ठी प्रधानमंत्री को भेजी गई और उसकी प्रति मुख्यमंत्री को। पता नहीं चिट्ठी भेजने वाले बच्चों को प्रधानमंत्री कार्यालय से कोई जवाब मिला या नहीं, लेकिन यह समझना कठिन है कि किसी शहर को साफ-सुथरा बनाने के लिए प्रधानमंत्री से गुहार लगाने का क्या मतलब? ऐसी गुहार का तब तो कोई मतलब हो भी सकता था जब भिंड का स्थानीय निकाय धन के अभाव का सामना कर रहा होता और केंद्र सरकार ने उसे धन मुहैया कराने के अपने किसी वायदे को पूरा नहीं किया होता। 1कोई केंद्रीय सत्ता अथवा राज्य सरकार कितनी भी सक्षम क्यों न हो वह वे काम नहीं कर सकती जो स्थानीय निकायों को करने हैं। शासन-प्रशासन को सक्षम-सुगम बनाने में ऑनलाइन सिस्टम के सहायक होने की खूब बातें हो रही हैं। ये बातें सही ही होंगी, लेकिन जब तक आम लोग अपने दायित्वों-कर्तव्यों के प्रति सजग नहीं होते तब तक कोई सिस्टम कारगर नहीं हो सकता और मुश्किल यह है कि कोई ऐसा एप या साफ्टवेयर नहीं बन सकता जो लोगों में नैतिक चेतना भी जगा सके। देश में ऐसे व्यक्तित्व बहुत कम हैं जो समाज में नैतिक चेतना जगाने और लोगों को अपने नागरिक दायित्वों के प्रति सजग करने का काम कर रहे हों। धर्मगुरुओं की बढ़ती संख्या के बावजूद यह कहना कठिन है कि नागरिक-पारिवारिक-सामाजिक मूल्यों का सही तरह संवर्धन हो रहा है। हाल में यह तथ्य सामने आया कि स्कूलों में शौचालय निर्माण का लक्ष्य करीब-करीब पूरा हो गया है। इसी के साथ ऐसी भी खबरें आईं कि गांवों में शौचालयों का निर्माण कार्य जारी तो है, लेकिन कई ग्रामीण इलाकों में लोग उनका इस्तेमाल इसलिए नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि खुले में ही शौच जाना बेहतर है। हैरत नहीं कि केंद्र सरकार से यह अपेक्षा की जाने लगे कि वह ऐसी कोई मुहिम चलाए कि लोग शौचालयों का इस्तेमाल करना शुरू करें।1(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
www.facebook.com/teacherharyana www.teacherharyana.blogspot.in (Recruitment , vacancy , job , news)
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस फैसले पर अमल की उम्मीद रखने में कोई हर्ज नहीं कि सभी सरकारी कर्मचारियों, अधिकारियों, मंत्रियों आदि के बच्चे सरकारी स्कूलों में ही पढ़ें, लेकिन आशंका यही है कि ऐसा नहीं होने दिया जाएगा। इसका
एक प्रमाण तब मिला भी जब उत्तर प्रदेश सरकार ने उस शिक्षक को निलंबित कर दिया जिसकी याचिका पर उच्च न्यायालय ने उक्त फैसला दिया था। उच्च न्यायालय का यह बहुचर्चित फैसला आते ही विरोध और असहमति के स्वर उठने लगे थे। इसमें से कुछ तार्किक भी थे। भले ही इस फैसले को लागू करना संभव न हो, लेकिन इसमें दोराय नहीं कि सरकारी स्कूलों के स्तर को दुरुस्त करने की सख्त जरूरत है। पठन-पाठन के स्तर को ठीक करने के साथ ही पाठ्यक्रम को भी बेहतर बनाना समय की मांग है। हालांकि नई शिक्षा नीति तैयार हो रही है, लेकिन यह कहना कठिन है कि वह स्कूलों में समान पाठ्यक्रम को अनिवार्य बनाने पर जोर देगी। देश भर के स्कूलों में समान पाठ्यक्रम सामाजिक समरसता और समानता का एक व्यापक आधार तैयार कर सकता है, लेकिन पता नहीं क्यों 68 वर्ष बाद भी इसकी जरूरत नहीं समझी जा रही है? कुछ विषयों में क्षेत्रीय महत्व की बातों को प्राथमिकता दिए जाने की रियायत के साथ सभी स्कूलों में एक समान पाठ्यक्रम आसानी से पढ़ाया जा सकता है। समान पाठ्यक्रम के दायरे में निजी स्कूलों को भी लाया जाना चाहिए। यह पाठ्यक्रम इस तरह तैयार किए जाने की जरूरत है जिससे देश की भावी पीढ़ी शिक्षित होने के साथ-साथ संस्कारित भी हो। यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि आजादी मिलते ही सामाजिक सुधार के आंदोलन-अभियान शिथिल पड़ गए। एक खराब बात यह हुई कि राजनीतिक दलों ने समाज निर्माण के कार्य को अपने एजेंडे से बाहर कर दिया। 1आज कोई भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं जो सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ मुहिम चलाता हो। किसी भी राजनीतिक दल के घोषणा पत्र में संस्कारवान-चरित्रवान पीढ़ी के निर्माण के लिए दो शब्द भी नहीं मिलते। इसके खतरनाक दुष्परिणाम सामने आए हैं। सरकारी स्कूलों के जिन शिक्षकों से यह अपेक्षित है कि वे पठन-पाठन के स्तर को सुधारें उनमें से कई ऐसे हैं जो खुद स्कूल जाने के बजाय किसी और को कुछ पैसे देकर यह काम सौंप देते हैं। ऐसा देश के कई राज्यों में हो रहा है। इस गोरखधंधे से शिक्षा विभाग के अधिकारी, जिलाधिकारी और मंत्री भी परिचित हैं, लेकिन कहीं कोई कार्रवाई नहीं हो पा रही है। यह शर्मनाक है कि शिक्षक पढ़ाने से तब इंकार कर रहे हैं जब उनका वेतन पहले की तुलना में बेहतर हुआ है। आखिर ऐसे शिक्षक समाज के हितैषी कैसे कहे जा सकते हैं जो अपना काम दूसरों को सौंप दे रहे हैं? जो भी शिक्षक ऐसा कर रहे हैं उनके पास अपने बचाव में कुछ तर्क हो सकते हैं, लेकिन इससे वे खुद को सही नहीं ठहरा सकते। हो सकता है कि आने वाले दिनों में इसकी भी जांच कराई जाने लगे कि स्कूल में उपस्थित शिक्षक वास्तविक है या उसका नुमाइंदा, लेकिन ऐसा दिन दुर्भाग्यपूर्ण ही होगा।1 शहरी और ग्रामीण इलाकों में कई विभागों के सरकारी अधिकारी-कर्मचारी ड्यूटी पर जाने से बचते हैं। कोई हफ्ते में दो-तीन दिन जाता है और कोई महीने में। ऐसा करने वाले सगर्व यह कहते भी हैं कि हमें रोज ड्यूटी जाने की जरूरत नहीं। ऐसे लोग उन लोगों पर बोझ ही नहीं बनते, बल्कि उन्हें हतोत्साहित भी करते हैं जो अपना काम सही तरह कर रहे हैं। कोई भी समाज और राष्ट्र कितना भी संपन्न क्यों न हो वह समस्याओं से पूरी तौर पर मुक्त कभी नहीं हो सकता। इधर अपने देश में यह धारणा बढ़ती जा रही है कि जो भी करना है सरकार को करना है और वह भी केंद्र सरकार को। पिछले दिनों स्वच्छ भारत अभियान में शामिल शहरों की वह सूची सामने आई जिसमें यह बताया गया कि साफ-सफाई के मामले में कौन सा शहर किस पायदान पर है। ग्वालियर के पास का भिंड शहर फिसड्डी शहरों में से एक है। यह तथ्य सामने आने के बाद यहां के एक स्कूल के बच्चों ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर पूछा-हमारा शहर इतना गंदा क्यों है? चिट्ठी प्रधानमंत्री को भेजी गई और उसकी प्रति मुख्यमंत्री को। पता नहीं चिट्ठी भेजने वाले बच्चों को प्रधानमंत्री कार्यालय से कोई जवाब मिला या नहीं, लेकिन यह समझना कठिन है कि किसी शहर को साफ-सुथरा बनाने के लिए प्रधानमंत्री से गुहार लगाने का क्या मतलब? ऐसी गुहार का तब तो कोई मतलब हो भी सकता था जब भिंड का स्थानीय निकाय धन के अभाव का सामना कर रहा होता और केंद्र सरकार ने उसे धन मुहैया कराने के अपने किसी वायदे को पूरा नहीं किया होता। 1कोई केंद्रीय सत्ता अथवा राज्य सरकार कितनी भी सक्षम क्यों न हो वह वे काम नहीं कर सकती जो स्थानीय निकायों को करने हैं। शासन-प्रशासन को सक्षम-सुगम बनाने में ऑनलाइन सिस्टम के सहायक होने की खूब बातें हो रही हैं। ये बातें सही ही होंगी, लेकिन जब तक आम लोग अपने दायित्वों-कर्तव्यों के प्रति सजग नहीं होते तब तक कोई सिस्टम कारगर नहीं हो सकता और मुश्किल यह है कि कोई ऐसा एप या साफ्टवेयर नहीं बन सकता जो लोगों में नैतिक चेतना भी जगा सके। देश में ऐसे व्यक्तित्व बहुत कम हैं जो समाज में नैतिक चेतना जगाने और लोगों को अपने नागरिक दायित्वों के प्रति सजग करने का काम कर रहे हों। धर्मगुरुओं की बढ़ती संख्या के बावजूद यह कहना कठिन है कि नागरिक-पारिवारिक-सामाजिक मूल्यों का सही तरह संवर्धन हो रहा है। हाल में यह तथ्य सामने आया कि स्कूलों में शौचालय निर्माण का लक्ष्य करीब-करीब पूरा हो गया है। इसी के साथ ऐसी भी खबरें आईं कि गांवों में शौचालयों का निर्माण कार्य जारी तो है, लेकिन कई ग्रामीण इलाकों में लोग उनका इस्तेमाल इसलिए नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि खुले में ही शौच जाना बेहतर है। हैरत नहीं कि केंद्र सरकार से यह अपेक्षा की जाने लगे कि वह ऐसी कोई मुहिम चलाए कि लोग शौचालयों का इस्तेमाल करना शुरू करें।1(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं)
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