हरियाणा में पंच और सरपंच बनने का सपना देखने वालों को बेशक चुनावी इम्तहान में उतरने के लिए अब कुछ इंतजार करना होगा, लेकिन राज्य की मनोहर लाल खट्टर सरकार पंचायत चुनावों की परीक्षा में उतर गयी है।
पंच और सरपंच के लिए शैक्षिक योग्यता की शर्त लागू करने के अपने फैसले पर अड़कर खुद खट्टर सरकार ने अपने लिए इम्तहान की जमीन तैयार कर
दी है। देश की सर्वोच्च अदालत में अब पक्ष और विपक्ष में दलीलें होंगी। जो सरकार के इस फैसले को चुनौती देने अदालत गए हैं, वे अपनी बात रखेंगे। सरकार बताएगी कि वह पंचों व सरपंचों के लिए न्यूनतम पढ़ाई के प्रमाणपत्र पर जोर क्यों दे रही है। और अंत में अदालत अपना फैसला सुनाएगी, जिसमें एक पक्ष की जीत और दूसरे पक्ष की हार होगी।
सरकार के पास आज अदालत के सामने अपना पक्ष रखने के लिए दो विकल्प थे। पहला, सुप्रीम कोर्ट की तल्ख टिप्पणी को देखते हुए, कि ‘जब सरकार पिछले 68 सालों में अपने लोगों को साक्षर नहीं बना पायी तो अब चुनाव लड़ने के लिए शैक्षिक योग्यता की शर्त लगाकर उनको सजा क्यों’, खट्टर सरकार इस शर्त को वापस ले लेती और पूर्व घोषित कार्यक्रम के मुताबिक पंचायत चुनावों को होने देती।
दूसरा विकल्प यह था कि सरकार अपने फैसले को सही ठहराती और खुद को न्यायिक कटघरे में खड़ा कर लेती। सरकार ने दूसरे विकल्प को चुना और अब सुप्रीम कोर्ट को यह फैसला करना है कि सरकार का फैसला न्याय व कानून की कसौटी पर खरा है या खोटा।
इस पूरे घटनाक्रम ने पंचायत चुनावों को बहुत दिलचस्प और खास बना दिया है। बेशक मसला सबसे प्राथमिक यानी पंचायत स्तर के चुनावों से जुड़ा है, लेकिन इससे जो निकलेगा, उसका असर दूर तक पड़ेगा।
मूल सवाल और बहस अब यह है कि क्या जनप्रतिनिधि होने के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता की शर्त होनी चाहिए? अगर पंचायत चुनाव के लिए ऐसी शर्त जरूरी है तो विधायक और सांसद बनने के लिए क्यों नहीं?
सवाल यह भी है कि, जैसा सुप्रीम कोर्ट ने कहा- ‘ऐसी शर्त थोपकर 50 फीसदी आबादी को चुनावी मुकाबले से बाहर करना ठीक नही’, अगर 68 साल बाद भी बड़ी तादाद में लोग साक्षर नहीं तो इसके लिए जिम्मेदार कौन है?
आंकड़ों पर नजर डालें तो हैरान-परेशान कर देने वाला सच सामने आता है। पंचायत चुनावों में उतरने के लिए न्यूनतम उम्र 21 वर्ष है, लेकिन 2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि 20 वर्ष या इससे अधिक उम्र की राज्य की 69.9 फीसदी ग्रामीण आबादी 8वीं या उससे कम दर्जे तक ही पढ़ी है।
गांवों में शिक्षित महिलाओं का आंकड़ा तो और भी डरावना है। 2011 की जनगणना बताती है कि 20 वर्ष या इससे अधिक उम्र की 71.7 फीसदी आबादी 5वीं कक्षा तक ही पढ़ी है और सिर्फ 19 फीसदी ने ही आठवीं या उससे आगे की पढ़ाई की है।
बात अनुसूचित जातियों की ग्रामीण आबादी की करें तो 72.1 फीसदी आबादी ने 5वीं कक्षा तक ही पढ़ाई की है। बात सिर्फ हरियाणा की ही क्यों, देखा जाए तो साक्षरता और बुनियादी शिक्षा के मामले में पूरे देश की सेहत कोई उत्साहवर्द्धक नहीं है। 2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं, देश की 24.8 प्रतिशत आबादी 5वीं तक ही पढ़ी है या निरक्षर है।
यह देश की उस पूरी आबादी का करीब एक चौथाई हिस्सा बनता है, जिसका जिक्र अक्सर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में करते हैं। जहां तक 10वीं कक्षा की बात है, जिसे हरियाणा सरकार ने सामान्य वर्ग के पंचायत उम्मीदवारों के लिए शर्त बनाया है, तो जमीनी हकीकत यह है कि देश की सिर्फ 15.2 प्रतिशत आबादी ही 10वीं या उससे आगे की पढ़ाई कर पायी है।
वैसे यह बहस कोई नयी नहीं है कि जनप्रतिनिधियों के लिए न्यूनतम शैक्षिक योग्यता की शर्त होनी चाहिए। सोशल साइट्स पर अर्से से यह एक गरम बहस का मुद्दा बना हुआ है। पर इस पर कोई निर्णायक बहस अभी तक नहीं हुई।
इस लिहाज से यह शुभ ही है कि हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने देश की सर्वोच्च अदालत के सामने अपनी सरकार को कठघरे में खड़ा करके एक निर्णायक उत्तर आने का रास्ता बना दिया है। सोशल साइट्स की बहस में दक्षिण भारतीय किन्हीं शिव शंकर ने जनप्रतिनिधियों के लिए शैक्षिक योग्यता की शर्त का विरोध करते हुए एक रोचक प्रसंग बताया है। वह लिखते हैं- तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री कामराज कभी स्कूल नहीं गए। लेकिन वह कामराज ही थे, जिन्होंने राज्य में शिक्षा के बेहतरीन इंतजाम किए, शिक्षा को मुफ्त बनाया और पढ़ने वाले गरीब बच्चों के लिए मिड डे मील जैसी अनूठी योजना की शुरुआत की।
शिव शंकर आगे लिखते हैं-‘कामराज की वजह से ही तमिलनाडु में साक्षरता दर सबसे आगे है और उनकी वजह से ही मेरे पिता मुफ्त पढ़ाई कर पाए।’ शिव शंकर के इन शब्दों के साथ ही आज की बात खत्म, वह कहते हैं- ‘ऐwww.facebook.com/teacherharyana
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