शिक्षक दिवस और साथ ही कृष्ण जन्माष्टमी की पूर्व संध्या पर यह एक अनूठा अवसर था जब छात्रों को प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से कुछ सीखने-समझने का अवसर मिला। दोनों ही नेताओं ने शिक्षा की महत्ता
पर अपनी-अपनी तरह से प्रकाश डाला और छात्रों के जीवन में मां एवं शिक्षक की भूमिका की अहमियत भी बताई, लेकिन यह कहना कठिन है कि इन नेताओं की प्रेरणास्पद बातों से शिक्षा का जो मौजूदा परिदृश्य है उसमें अपेक्षित तब्दीली आएगी। किसी भी राष्ट्र के समग्र विकास में शिक्षा की अहम भूमिका होती है। शिक्षा का स्तर राष्ट्र के स्तर को तय करता है। एक लंबे अर्से से सभी यह महसूस कर रहे हैं कि शिक्षा में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है, लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि केंद्र सरकार एक नई शिक्षा नीति तैयार करने में लगी हुई है। फिलहाल तय नहीं कि यह नीति कब और किस रूप में सामने आएगी? यह समझना कठिन है कि इसमें इतनी देरी क्यों हुई और वह भी तब जब बार-बार यह बताया जा रहा था कि शिक्षा में सुधार मोदी सरकार की प्राथमिकता में शामिल है। 15 माह में नई शिक्षा नीति का पहला प्रारूप भी सामने न आना एक बड़ा सवाल है। देश में सभी स्तरों पर शिक्षा में बदलाव की आवश्यकता है-वह चाहे प्राथमिक शिक्षा हो या माध्यमिक शिक्षा या फिर उच्च शिक्षा। प्राथमिक और उच्च शिक्षा को जैसा स्तर है उससे तो बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता। इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं हो सकती कि एक ओर प्रतिवर्ष लाखों छात्र शिक्षा प्राप्त करने के लिए विदेश चले जाते हैं और दूसरी ओर तमाम युवा भारत में शिक्षा प्राप्त करने के बाद बेहतर अवसरों की तलाश में विदेश की ओर रुख करते हैं। प्रतिभा पलायन की बातें तो बहुत हो रही हैं, लेकिन प्रतिभा पलायन कैसे रुके, इसकी कोई ठोस योजना न पहले की सरकारों के पास दिखती थी और न मौजूदा सरकार के पास दिख रही है।1छात्रों को शिक्षित करने के साथ ही उन्हें संस्कारवान बनाना शिक्षा का प्रथम ध्येय होना चाहिए,लेकिन अब ऐसा नहीं दिखता और इसके दुष्परिणाम कई रूपों में सामने आ रहे हैं। एक समय शिक्षण कार्य सबसे सम्मानजनक और आदर्श पेशे के रूप में जाना जाता था, लेकिन समय के साथ स्थितियां बदलीं और इसका असर शिक्षा के ढांचे और उसके स्तर पर भी पड़ा। इसके लिए सरकारें भी जिम्मेदार हैं और एक हद तक शिक्षक समुदाय भी। जहां सरकारों ने यह ध्यान नहीं रखा कि राष्ट्र का निर्माण करने वाली पीढ़ी तैयार करने वाले शिक्षकों की गरिमा कम न होने पाए वहीं शिक्षकों का एक ऐसा वर्ग भी सामने आया जो अपने कर्तव्यों के मुकाबले अधिकारों के लिए कहीं अधिक सजग दिखा। ऐसा लगता है कि कहीं कोई इसकी परवाह नहीं कर रहा कि छोटी-छोटी कक्षाओं में भी ट्यूशन आवश्यक क्यों है और बच्चों के बस्तों का बोझ क्यों बढ़ रहा है? शायद कोई इससे भी चिंतित नहीं कि सरकारी और निजी स्कूलों के बीच का अंतर बढ़ना ठीक नहीं। उच्च शिक्षा के तमाम केंद्र जिस तरह महज डिग्रीधारकों की फौज तैयार करने में लगे हैं वह भी एक गंभीर समस्या है। राष्ट्र को जैसे युवाओं की आवश्यकता है वैसे तैयार नहीं हो रहे हैं। पाठ्यक्रम में परिवर्तन की जरूरत सभी जताते हैं, लेकिन इस बारे में केवल विचार-विमर्श करने में ही वक्त जाया हो रहा है। कम से कम अब तो और वक्त नहीं गंवाया जाना चाहिए।
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पर अपनी-अपनी तरह से प्रकाश डाला और छात्रों के जीवन में मां एवं शिक्षक की भूमिका की अहमियत भी बताई, लेकिन यह कहना कठिन है कि इन नेताओं की प्रेरणास्पद बातों से शिक्षा का जो मौजूदा परिदृश्य है उसमें अपेक्षित तब्दीली आएगी। किसी भी राष्ट्र के समग्र विकास में शिक्षा की अहम भूमिका होती है। शिक्षा का स्तर राष्ट्र के स्तर को तय करता है। एक लंबे अर्से से सभी यह महसूस कर रहे हैं कि शिक्षा में आमूल-चूल परिवर्तन की आवश्यकता है, लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है। इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि केंद्र सरकार एक नई शिक्षा नीति तैयार करने में लगी हुई है। फिलहाल तय नहीं कि यह नीति कब और किस रूप में सामने आएगी? यह समझना कठिन है कि इसमें इतनी देरी क्यों हुई और वह भी तब जब बार-बार यह बताया जा रहा था कि शिक्षा में सुधार मोदी सरकार की प्राथमिकता में शामिल है। 15 माह में नई शिक्षा नीति का पहला प्रारूप भी सामने न आना एक बड़ा सवाल है। देश में सभी स्तरों पर शिक्षा में बदलाव की आवश्यकता है-वह चाहे प्राथमिक शिक्षा हो या माध्यमिक शिक्षा या फिर उच्च शिक्षा। प्राथमिक और उच्च शिक्षा को जैसा स्तर है उससे तो बिल्कुल भी संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता। इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं हो सकती कि एक ओर प्रतिवर्ष लाखों छात्र शिक्षा प्राप्त करने के लिए विदेश चले जाते हैं और दूसरी ओर तमाम युवा भारत में शिक्षा प्राप्त करने के बाद बेहतर अवसरों की तलाश में विदेश की ओर रुख करते हैं। प्रतिभा पलायन की बातें तो बहुत हो रही हैं, लेकिन प्रतिभा पलायन कैसे रुके, इसकी कोई ठोस योजना न पहले की सरकारों के पास दिखती थी और न मौजूदा सरकार के पास दिख रही है।1छात्रों को शिक्षित करने के साथ ही उन्हें संस्कारवान बनाना शिक्षा का प्रथम ध्येय होना चाहिए,लेकिन अब ऐसा नहीं दिखता और इसके दुष्परिणाम कई रूपों में सामने आ रहे हैं। एक समय शिक्षण कार्य सबसे सम्मानजनक और आदर्श पेशे के रूप में जाना जाता था, लेकिन समय के साथ स्थितियां बदलीं और इसका असर शिक्षा के ढांचे और उसके स्तर पर भी पड़ा। इसके लिए सरकारें भी जिम्मेदार हैं और एक हद तक शिक्षक समुदाय भी। जहां सरकारों ने यह ध्यान नहीं रखा कि राष्ट्र का निर्माण करने वाली पीढ़ी तैयार करने वाले शिक्षकों की गरिमा कम न होने पाए वहीं शिक्षकों का एक ऐसा वर्ग भी सामने आया जो अपने कर्तव्यों के मुकाबले अधिकारों के लिए कहीं अधिक सजग दिखा। ऐसा लगता है कि कहीं कोई इसकी परवाह नहीं कर रहा कि छोटी-छोटी कक्षाओं में भी ट्यूशन आवश्यक क्यों है और बच्चों के बस्तों का बोझ क्यों बढ़ रहा है? शायद कोई इससे भी चिंतित नहीं कि सरकारी और निजी स्कूलों के बीच का अंतर बढ़ना ठीक नहीं। उच्च शिक्षा के तमाम केंद्र जिस तरह महज डिग्रीधारकों की फौज तैयार करने में लगे हैं वह भी एक गंभीर समस्या है। राष्ट्र को जैसे युवाओं की आवश्यकता है वैसे तैयार नहीं हो रहे हैं। पाठ्यक्रम में परिवर्तन की जरूरत सभी जताते हैं, लेकिन इस बारे में केवल विचार-विमर्श करने में ही वक्त जाया हो रहा है। कम से कम अब तो और वक्त नहीं गंवाया जाना चाहिए।
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