सोनीपत : हर बार राजकीय कॉलेजों में शैक्षणिक सुधार को लेकर नेता से लेकर अधिकारी वर्ग द्वारा अक्सर बड़े बोल बोले जाते हैं, लेकिन राजकीय कॉलेजों से जुड़ी एक बड़ी हकीकत यह बताने के लिए काफी है कि एक पुराने रुकावट वाले नियम को सुधारने की कोशिश करीब तीन दशक बाद भी नहीं हो सकी है।
राजकीय कॉलेजों के प्राचार्यों की डीडीओ (ड्राइंग एंड डिसबर्सिंग ऑफिसर) के तौर पर शक्तियां बेहद कम हैं। इस शक्ति का प्रयोग करते हुए वह कॉलेज के लिए केवल पांच सौ रुपये महीना ही खर्च कर सकते हैं। इससे अधिक खर्च करने के लिए उन्हें कोटेशन मंगनी होती है। इस प्रक्रिया में काफी समय लगता है। ऐसे में कॉलेजों के बहुत से महत्वपूर्ण कार्य या तो हो नहीं पाते या बिना वजह लटक जाते हैं। राजकीय कॉलेजों में पढ़ रहे विद्यार्थी भी इस मुद्दे से सीधे तौर पर जुड़े हुए हैं। उन्हें कॉलेजों में छोटी-छोटी खामियों का सामना करना पड़ता है।
30 साल पहले मिलते थे पांच सौ रुपए :
सोनीपतमें तीन राजकीय कॉलेज है, जहां सभी संबंधित इस व्यवस्था से जूझ रहे हैं। कॉलेज प्रिंसिपल बताते हैं कि करीब 30 साल पहले प्राचार्य की डीडीओ के तौर पर शक्ति पांच सौ रुपये निर्धारित की गई थी। तब खर्च भी उतने नहीं थे, लेकिन अब कॉलेज की जरूरतें काफी बढ़ गई है। कॉलेजों की छोटी-छोटी खामियों को दूर करने के लिए प्राचार्य बेहद लाचार महसूस करते हैं।
अगर किसी कक्षा का पंखा खराब हो जाए तो पांच सौ रुपये से अधिक का नया लगाने के लिए विभिन्न दुकानदारों से कोटेशन मंगानी पड़ेगी। इसकी प्रक्रिया काफी लंबी है। वहीं दुकानदार भी इतने छोटे से काम के लिए कॉटेशन देने से इंकार कर देते हैं।
वेतन में हो चुकी है बढ़ोतरी
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