विकास सूचकांक में पिछड़ने की टीस
वर्ष 2016 को लेकर जारी की गई संयुक्त राष्ट्र मानव विकास सूचकांक सूची में कुल 188 देशों में भारत पिछले साल के 130वें स्थान से एक पायदान नीचे लुढ़ककर 131वें नंबर पर जा पहुंचा है, जबकि नॉर्वे को पहला स्थान मिला है। नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार पिछले साल की आखिरी तिमाही में नोटबंदी और इसके विपरीत असर के बावजूद हमारी कुल सकल आय यानी जीडीपी में 7.1 प्रतिशत की प्रभावशाली वृद्धि बताई जा रही है। भारत इस समय विश्व में तेजी से तरक्की करने वाले मुल्कों में एक है और व्यापार करने में आसानी हेतु बनाई गई सूचकांक सूची में इस बार 4 स्थान ऊपर जा चढ़ा है। जहां एक ओर भारत के कुल सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर्ज की जा रही है वहीं दूसरी ओर मानव विकास में हम पिछड़ते जा रहे है। इसका सीधा मतलब है कि लाखों लोग स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाओं का लाभ उठाने से वंचित रह जाएंगे। विकसित देशों की क्या बात करें, यहां तो विकासशील देशों के संगठन ‘ब्रिक्स’ के अन्य सदस्यों में भी भारत सबसे निचले पायदान पर आता है। जबकि संयुक्त राष्ट्र मानव विकास सूची में चीन 90वें, ब्राजील 79वें, रूस 49वें और दक्षिण अफ्रीका 119वें स्थान पर है। यहां तक कि ‘सार्क’ संगठन में भी मानव विकास के मामले में भारत का स्थान श्रीलंका और मालदीव के बाद आता है और भूटान, बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान से कुछ ही पायदान ऊपर है। हां, इतना जरूर है कि मानव विकास के वर्गीकरण हेतु बनाई गई तालिका में हमारा क्रमांक अब सबसे निचले वर्ग से उठकर मध्य वर्ग में आ गया है। हालांकि, यह उपलब्धि प्रभावशाली है तथापि यह वृद्धि मानव विकास में नीचे लुढ़कने की हमारी स्थिति की भरपाई नहीं कर सकती।
1990 में शुरू की गई मानव विकास सूचकांक प्रणाली किसी देश की मानवीय विकास का एक औसत पैमाना माना जाता है। इसके तहत देशों के मानव विकास स्तर को चार वर्गों में बांटा गया है और इसकी गणना के लिए आयु-संभाविता, शिक्षा और प्रति व्यक्ति औसत आय को आधार माना जाता है। अतएव किसी मुल्क के बाशिंदों का जीवनकाल, शिक्षा और प्रति व्यक्ति आय का औसत जितना अधिक होगा उतना ही वह देश मानव विकास सूचकांक सूची में ऊपरी पायदानों पर होता है।
दरअसल, केवल मानव विकास सूचकांक से यह अंदाजा नहीं लगाना चाहिए कि वह उस देश-समाज के सभी तबकों का एक समान प्रतिनिधित्व करता है, लिहाजा गणना हेतु इसमें सामाजिक असमानता-सूचक का भी समायोजन किया जाता है। जैसे-जैसे किसी देश में असमानता सूचक का आंकड़ा बढ़ता है वैसे-वैसे मानव विकास क्रमांक में उसका स्थान नीचे की ओर जाने लगता है। इसलिए वर्ष 2015 में जब भारत का मानव विकास सूचकांक हालांकि 0.624 बनता था लेकिन इसमें असमानता-सूचक का समायोजन किए जाने के बाद यह घटकर 0.454 रह गया था यानी इसमें 27.2 प्रतिशत की कमी आई। यूं तो मानव विकास तालिका के मध्य वर्ग में उत्तीर्ण होने वाले देशों के लिए असमानता-समायोजन से पड़ने वाले घटाव की औसत दर 25.7 प्रतिशत रखी गई है, लेकिन दक्षिण एशियाई देशों के लिए यही पैमाना 27.2 फीसदी वाला निर्धारित किया गया है।
लैंगिक-विकास सूचकांक सूची में भारत का स्थान औसत अंक 0.810 से इतना भी नीचे नहीं है। इसमें भी स्विट्ज़रलैंड 0.040 के अंक लेकर लिस्ट में पहले स्थान पर है। लैंगिक-विकास में कुल मिलाकर समूचे दक्षिण एशिया का स्थान दुनियाभर में सबसे नीचे आता है। भारत की बाल-मृत्यु दर प्रति 1000 जीवित बचे शिशुओं पर 174 है जबकि स्विट्ज़रलैंड का औसत केवल 5 मौतों का है। भारत का ध्येय बाल-मृत्यदर को 140 पर लाने का था जो कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस सदी के लिए तय किए गए ध्येय के अनुरूप है, लेकिन यह पूरा नहीं हो पाया। भारत में लड़कियों का स्कूली शिक्षा काल का औसत 4.8 वर्ष है जबकि इसके मुकाबले लड़कों का आंकड़ा 8.2 साल है। इसी तरह भारत में महिलाओं की औसतन वार्षिक आय जहां 2,184 डॉलर बनती है, वहीं मर्दों का औसत 8,897 डॉलर है। श्रमिक क्षेत्र में भी महिलाओं का योगदान महज 26.8 फीसदी है और देश की संसद में कुल सदस्यों में केवल 12.2 फीसदी महिला सांसद हैं जो कि विकासशील देशों के औसत से कम है।
भारत में आयु-दीर्घता में 1990 से 2015 के बीच 10.4 वर्ष की बढ़ोतरी हुई है और इस अवधि में 5 साल से कम बच्चों की मृत्यु-दर में आंशिक कमी दर्ज की गई है। लेकिन अपने वार्षिक बजट में सकल घरेलू उत्पाद का महज 1.4 प्रतिशत सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए रखने वाले मुल्क से अंतर्राष्ट्रीय पैमाने का मुकाबला करने की आस रखना मुश्किल है। हालांकि, मोदी सरकार द्वारा नई स्वास्थ्य योजना के लिए जीडीपी का 2.5 फीसदी भाग खर्च करने से कुछ फर्क जरूर पड़ेगा। भारत में वैसे भी डॉक्टरों, नर्सों, अस्पतालों और दवाओं की भारी कमी है और स्वास्थ्य सुविधाओं में क्षेत्रीय स्तर पर भारी अंतर है।
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में भारत की कुछ खूबियों की भी प्रशंसा की गई है मसलन, सामाजिक समानता के लिए भारत सरकार ने पिछड़े वर्ग के लिए जो आरक्षण नीतियां लागू की हैं, उनसे हुए सकारात्मक असर देखने को मिल रहे हैं। वर्ष 1965 में उच्च सरकारी पदों पर दलित वर्ग के अधिकारियों की संख्या महज 2 प्रतिशत थी जो 2011 तक बढ़कर 11 प्रतिशत हो गयी है। इस रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि सामाजिक भलाई के लिए लागू किए गए कार्यक्रमों के क्रियान्वन में जो अड़चनें आ जाती है, सामाजिक संगठन उनको चिन्हित करके सार्वजनिक बैठकों में विचार-विमर्श के लिए लोगों के सामने प्रस्तुत करते हैं, इससे पारदर्शिता बनाने में मदद मिलती है।
भारत में गरीबों की संख्या में कमी आई है, लेकिन अभी भी लगभग 20 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन कर रहे हैं। गरीबी रेखा वह पैमाना है जिसमें 1.90 डॉलर से कम दिहाड़ी कमाने वालों को रखा गया है। संयुक्त राष्ट्र की रपट में ‘मनरेगा’ योजना की भी तारीफ इसलिए की गई है कि इसके तहत ऐसे कार्य करवाए जाते हैं जिससे न सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर पैदा होते हैं बल्कि देश-निर्माण के लिए महत्वपूर्ण बुनियादी ढांचे का विकास भी होता है। रिपोर्ट में वर्ष 2005 से समय-समय पर लागू गए उन सही सरकारी कार्यक्रमों की प्रशंसा की गई है जिसके तहत दबे-कुचले वर्ग को सामाजिक-आर्थिक हक देना प्रमुख ध्येय है, इसमें सूचना, शिक्षा, रोजगार, खाद्य सुरक्षा, वन-संरक्षण और सार्वजनिक सेवाएं इत्यादि प्राप्त करने के अधिकार लगातार जोड़े जाते रहे हैं।
इस समय विश्व की कुल 8 खरब आबादी में लगभग 1.5 खरब लोग गरीबी में जीवन-यापन कर रहे हैं, खासकर विकसित देशों में जहां इसका लगभग 54 प्रतिशत हिस्सा दक्षिण-एशियाई मुल्कों में और 34 फीसदी भाग अफ्रीकी महाद्वीप के सहारा क्षेत्र के मुल्कों में बसा हुआ है। इस श्रेणी में वे परिवार आते हैं जो स्वास्थ्य और शिक्षा से पूरी तरह महरूम है।
रपट में भारत द्वारा दक्षिण एशियाई देशों के आपस में सहयोग करने हेतु चलाए जा रहे प्रशिक्षण कार्यक्रम की तारीफ की गई है जिसमें अत्यंत पिछड़े देशों से आए लगभग 10,000 प्रतिभागी भारत की आईटी, दूरसंचार, नवीनीकृत ऊर्जा, ग्रामीण विकास कार्यक्रम और प्रबंधन क्षेत्र में महारत को सीखने का लाभ ले चुके हैं।
इन सब के बावजूद मानव विकास में सुदृढ़ स्थिति पाए बिना भारत एक असमान सामाजिक व्यवस्था वाला देश बना रहेगा, हालांकि इसे मापने के लिए बना ‘गिनी-पैमाना’ 35.5 प्रतिशत का आंकड़ा दर्शाता है और भले ही यह चीन के 42.2 फीसदी जितना बड़ा नहीं है। फिर भी बढ़ती असमानता समरसता और शांति से परिपूर्ण एक ऐसा समाज बनाने में बाधक हैं जिसमें सबका साथ-सबका विकास वाला नारा फलीभूत हो सके।