केंद्र सरकार के एक विभाग में लगभग तीन सालों से काम कर रहा है। वह वहां ठेके पर नियुक्त है। वह जिस नीचले पद पर नियुक्त हुआ था, आज भी वहीं है। जबकि उसके जूनियर उससे ऊंचे पद पर चले गए हैं या नियुक्त किए जाते हैं। आखिर इसका आधार क्या है? क्या प्रमोशन का आधार दफ्तर का कामकाज और जिम्मेदारी को ईमानदारी से पूरा करना है तथा दफ्तर को अपना अतिरिक्त समय और श्रम देना है? अपने दफ्तर में अरुण ऐसा कामगार है, जिसके काम पर लगभग लोगों को भरोसा होता है। चुनौतीपूर्ण काम की जिम्मेदारी जब भी दफ्तर में आती है, उसे ही याद किया जाता है। दिन-रात एक करके दिए गए अपने काम को पूरा करता है, लेकिन प्रमोशन
के लिए होने वाले इंटरव्यू में वह छांट दिया जाता है। जिन्हें प्रोमोशन दिया जाता है या जिन्हें ऊंचे पदों पर सीधे नियुक्त किया जाता है, उसकी सबसे बड़ी योग्यता यही नजर आती है कि वे किसी प्रभावशाली नौकरशाह के किसी न किसी रूप में जानकार या रिश्तेदार हैं। दरअसल, नियुक्ति में आरक्षण और प्रमोशन में आरक्षण के साथ दो अलग-अलग तर्क नहीं चल सकते हैं। आरक्षण के लिए जो तर्क दिए जाते हैं, वही तर्क प्रमोशन के लिए भी लागू होते हैं। प्रमोशन में आरक्षण के मसले पर संसद में हुई चर्चाओं में भालचंद मूंगेकर द्वारा यह बात सामने आई है कि केंद्र सरकार में नौकरशाही के सबसे महत्वपूर्ण पद सचिव पर एक भी दलित नहीं है। डायरेक्टर के पद पर भी चंद दलित ही हैं। बहुजन समाज पार्टी के नेता दारा सिंह चौहान ने चौदहवीं लोकसभा में केंद्र सरकार के सभी विभागों से ऊंचे पदों पर बैठे लोगों की सामाजिक पृष्ठभूमि के बारे में जानकारी मांगी थी। वह जानकारी चौकाने वाली थी और उस समय भी सचिव के पद पर दलित, पिछड़े, आदिवासी नहीं थे। पद मिला तो पदोन्नति क्यों नहीं जब नौकरियों में आरक्षण के पक्ष में आवाज लगाई जा रही थी तो इसका विरोध करने वालों का यह कहना था कि नौकरियों में आरक्षण के बजाय शिक्षा की बेहतरीन सुविधाएं दी जानी चाहिए। अब जिन लोगों को आरक्षण की नीति को स्वीकार करना पड़ा है, वे यह कहते हैं कि नियुक्ति में तो आरक्षण ठीक है, लेकिन प्रमोशन में आरक्षण ठीक नहीं है। दरअसल, समानता पर आधारित समाज के निर्माण का कार्यक्रम ही स्वीकार नहीं हो तो खोखले तर्क ही सामने आ सकते हैं। उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार में प्रमोशन में आरक्षण की एक नीति तैयार की गई। उसे इलाहाबाद हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने भी उस फैसले पर अपनी मुहर लगा दी। दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को जातीय व्यवस्था के कारण असमानता की जिन स्थितियों का पीढ़ी दर पीढ़ी सामना करना पड़ रहा है, उन्हें संसदीय व्यवस्था के स्वभाव और तरीके से दूर करने की ही कोशिश कहीं जा सकती है। राजनीतिक मंच मतदान की संख्या से सजते हैं। इसीलिए वहां इनका विरोध संभव नहीं है। बहुमत मतदाता वही हैं, जिनकी शिकायत है कि उन्हें जातीय आधार पर विभिन्न अवसरों से वंचित रखा गया है। आरक्षण के विरोधियों का यह भी तर्क होता है कि आरक्षण का लाभ गरीबों को नहीं मिल पाता है। आरक्षण का आधार आर्थिक नहीं है और आर्थिक आधार पर आरक्षण इस संविधान के तहत लागू नहीं हो सकता है। आर्थिक रूप से दबे-कुचले दलितों, आदिवासियों व पिछड़े वर्ग के सदस्यों को आरक्षण का लाभ नहीं मिल पा रहा है तो यह उस वर्ग के बदतर हालात को लेकर चिंता है या प्रकारांतर से आरक्षण की व्यवस्था का विरोध है? जो जातीय आधार पर आरक्षण के विरोधी हैं, वे आर्थिक आधार पर वर्गीय संघर्ष के भी विरोधी के रूप में सामने आए हैं। आरक्षण का लाभ गरीब नहीं उठा सकता है, यह तय हैं। यह भी तय है कि जो नियुक्ति में आरक्षण पाता है या प्रमोशन में जो आरक्षण प्राप्त करता है, उससे उसके दलित, आदिवासी या पिछड़े वर्ग के प्रति हितैषी या शुभचिंतक होने की गारंटी नहीं ली जा सकती है। वह समाज को मिले आरक्षण का लाभ उठाता है और जिस ढांचे में उसे वह अवसर मिलता है, वह उस ढांचे में उन्हीं कुंठाओं व प्रताड़ना का शिकार होता है और फिर वहां भी उससे वह निकलने की कोशिश करता रहता है। भारतीय समाज व्यवस्था में जाति के भीतर समानता का बोध विकसित करना बेहद जटिल प्रक्रिया है। यह गहरी संवेदनशीलता की मांग करता है। न्यायालय का नजरिया बेहद तकनीकी होता है और वह उसी तरह से समाज को देखता है। उसे इसी तरह की जिम्मेदारी का बोध है। इसीलिए प्रमोशन में आरक्षण को इस आधार पर खारिज किया, क्योंकि उस नीति को बनाने के लिए पर्याप्त संख्या में आंकड़े मुहैया नहीं कराए गए थे। यानी प्रमोशन के जो तकनीकी आधार हो सकते हैं, वे सरकार के प्रमोशन नीति को लागू करने के फैसले को मजबूती से स्थापित नहीं कर रहे हैं। दलित, पिछड़ों और आदिवासियों के वंचित होने के कारणों पर शोध बेहद कम हैं और उनके बीच शोध की संस्कृति भी नहीं दिखाई देती है। इसीलिए उनके मुद्दे बराबर तकनीकी तौर पर कमजोरी के शिकार हो जाते हैं। फिलहाल राजनीतिक मंचों द्वारा सामाजिक न्याय के हित में खासतौर से आरक्षण के जितने भी फैसले किए गए हैं, उन्हें तकनीकी आधार पर ही न्यायालयों ने या तो खारिज किया है या उन्हें उसी रूप में लागू करने से रोका है। कानून की ओर कदम भारतीय सामाजिक व्यवस्था में आरक्षण महज आंकड़ों का खेल नहीं है, बल्कि सामाजिक समानता के दर्शन की उपज है। राजनीतिक मंचों की जिम्मेदारी इसी रूप में सोचने और उस दिशा में कदम उठाने की होती है। संसद में आरक्षण पर भी सहमति देखने को मिली है और प्रमोशन में आरक्षण के मसले पर भी राजनीतिक दलों में सहमति बनी है। सामाजिक न्याय के मसले पर विधायिका बनाम न्यायपालिका का तीखा संघर्ष चलता आ रहा है। आरक्षण समर्थकों के बड़े वर्ग की न्यायपालिका से शिकायत रही है और आरक्षण का विरोधी पक्ष सदैव राजनीतिक फैसलों के खिलाफ न्यायपालिका से राहत की उम्मीद करता रहा है। संसदीय व्यवस्था में अपनी-अपनी क्षमताओं और ताकत के अनुसार विभिन्न सामाजिक शक्तियां उसके स्तंभों का इस्तेमाल अपने हित के लिए करती हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद संसद में प्रमोशन में आरक्षण कानून बनाने पर सहमति लगभग हो गई है। आरक्षण से संबंधित विवाद के मूल में हमेशा जाति का ही प्रश्न होता है। इसकी वजह यह है कि जाति को पिछड़ेपन का आधार नहीं मानने की जिद है, जबकि सुप्रीम कोर्ट भी जाति को पिछड़ेपन का आधार मानने से इन्कार नहीं कर सका है। आखिर कौन-सा ऐसा क्षेत्र है, जहां जातीय आधार पर दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के बीच वंचना की स्थिति नहीं देखी जाती है। महज आंकड़ों के जरिये यह एक नई बात सामने आई है कि देश में उद्योगों को चलाने वाले ऊंचे पदों पर 93 प्रतिशत लोग गैर पिछड़े, गैर दलित, गैर आदिवासी हैं। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि तमाम तरह के उत्पादनों में दलित, पिछड़े और आदिवासी ही लगे रहे हैं, लेकिन नए उद्योगों में वे वंचित नजर आते हैं? अगर मान लिया जाए कि सरकार वंचित वर्गो को उद्योगों के लिए कर्ज और दूसरी सुविधाएं देती है तो क्या यह जातिवादी फैसला होगा? मजे की बात यह है कि सरकार के इस तरह के फैसलों का मुखर विरोध नहीं होता है, लेकिन सत्ता को संचालित करने वाले स्तंभों पर जैसे ही विशेष अवसर देने की वकालत की जाती है, उसका विरोध शुरू हो जाता है। क्या फर्क है प्रमोशन में आरक्षण देने में और नए किस्म का उद्योग चलाने के लिए सहायता देने में? तार्किक आधार पर तो कोई फर्क नहीं है, लेकिन निर्णायक पदों पर वर्चस्वशाली संस्कृति के प्रवक्ताओं से इतर कोई ऊंचे पदों पर बैठने की कोशिश करता है तो सवाल राष्ट्र, विकास, योग्यता आदि हथियारों के जरिये किया जाने लगता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में असमानता के मूल कारणों को लंबे अरसे तक नहीं दबाया जा सकता है।
के लिए होने वाले इंटरव्यू में वह छांट दिया जाता है। जिन्हें प्रोमोशन दिया जाता है या जिन्हें ऊंचे पदों पर सीधे नियुक्त किया जाता है, उसकी सबसे बड़ी योग्यता यही नजर आती है कि वे किसी प्रभावशाली नौकरशाह के किसी न किसी रूप में जानकार या रिश्तेदार हैं। दरअसल, नियुक्ति में आरक्षण और प्रमोशन में आरक्षण के साथ दो अलग-अलग तर्क नहीं चल सकते हैं। आरक्षण के लिए जो तर्क दिए जाते हैं, वही तर्क प्रमोशन के लिए भी लागू होते हैं। प्रमोशन में आरक्षण के मसले पर संसद में हुई चर्चाओं में भालचंद मूंगेकर द्वारा यह बात सामने आई है कि केंद्र सरकार में नौकरशाही के सबसे महत्वपूर्ण पद सचिव पर एक भी दलित नहीं है। डायरेक्टर के पद पर भी चंद दलित ही हैं। बहुजन समाज पार्टी के नेता दारा सिंह चौहान ने चौदहवीं लोकसभा में केंद्र सरकार के सभी विभागों से ऊंचे पदों पर बैठे लोगों की सामाजिक पृष्ठभूमि के बारे में जानकारी मांगी थी। वह जानकारी चौकाने वाली थी और उस समय भी सचिव के पद पर दलित, पिछड़े, आदिवासी नहीं थे। पद मिला तो पदोन्नति क्यों नहीं जब नौकरियों में आरक्षण के पक्ष में आवाज लगाई जा रही थी तो इसका विरोध करने वालों का यह कहना था कि नौकरियों में आरक्षण के बजाय शिक्षा की बेहतरीन सुविधाएं दी जानी चाहिए। अब जिन लोगों को आरक्षण की नीति को स्वीकार करना पड़ा है, वे यह कहते हैं कि नियुक्ति में तो आरक्षण ठीक है, लेकिन प्रमोशन में आरक्षण ठीक नहीं है। दरअसल, समानता पर आधारित समाज के निर्माण का कार्यक्रम ही स्वीकार नहीं हो तो खोखले तर्क ही सामने आ सकते हैं। उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार में प्रमोशन में आरक्षण की एक नीति तैयार की गई। उसे इलाहाबाद हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट ने भी उस फैसले पर अपनी मुहर लगा दी। दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को जातीय व्यवस्था के कारण असमानता की जिन स्थितियों का पीढ़ी दर पीढ़ी सामना करना पड़ रहा है, उन्हें संसदीय व्यवस्था के स्वभाव और तरीके से दूर करने की ही कोशिश कहीं जा सकती है। राजनीतिक मंच मतदान की संख्या से सजते हैं। इसीलिए वहां इनका विरोध संभव नहीं है। बहुमत मतदाता वही हैं, जिनकी शिकायत है कि उन्हें जातीय आधार पर विभिन्न अवसरों से वंचित रखा गया है। आरक्षण के विरोधियों का यह भी तर्क होता है कि आरक्षण का लाभ गरीबों को नहीं मिल पाता है। आरक्षण का आधार आर्थिक नहीं है और आर्थिक आधार पर आरक्षण इस संविधान के तहत लागू नहीं हो सकता है। आर्थिक रूप से दबे-कुचले दलितों, आदिवासियों व पिछड़े वर्ग के सदस्यों को आरक्षण का लाभ नहीं मिल पा रहा है तो यह उस वर्ग के बदतर हालात को लेकर चिंता है या प्रकारांतर से आरक्षण की व्यवस्था का विरोध है? जो जातीय आधार पर आरक्षण के विरोधी हैं, वे आर्थिक आधार पर वर्गीय संघर्ष के भी विरोधी के रूप में सामने आए हैं। आरक्षण का लाभ गरीब नहीं उठा सकता है, यह तय हैं। यह भी तय है कि जो नियुक्ति में आरक्षण पाता है या प्रमोशन में जो आरक्षण प्राप्त करता है, उससे उसके दलित, आदिवासी या पिछड़े वर्ग के प्रति हितैषी या शुभचिंतक होने की गारंटी नहीं ली जा सकती है। वह समाज को मिले आरक्षण का लाभ उठाता है और जिस ढांचे में उसे वह अवसर मिलता है, वह उस ढांचे में उन्हीं कुंठाओं व प्रताड़ना का शिकार होता है और फिर वहां भी उससे वह निकलने की कोशिश करता रहता है। भारतीय समाज व्यवस्था में जाति के भीतर समानता का बोध विकसित करना बेहद जटिल प्रक्रिया है। यह गहरी संवेदनशीलता की मांग करता है। न्यायालय का नजरिया बेहद तकनीकी होता है और वह उसी तरह से समाज को देखता है। उसे इसी तरह की जिम्मेदारी का बोध है। इसीलिए प्रमोशन में आरक्षण को इस आधार पर खारिज किया, क्योंकि उस नीति को बनाने के लिए पर्याप्त संख्या में आंकड़े मुहैया नहीं कराए गए थे। यानी प्रमोशन के जो तकनीकी आधार हो सकते हैं, वे सरकार के प्रमोशन नीति को लागू करने के फैसले को मजबूती से स्थापित नहीं कर रहे हैं। दलित, पिछड़ों और आदिवासियों के वंचित होने के कारणों पर शोध बेहद कम हैं और उनके बीच शोध की संस्कृति भी नहीं दिखाई देती है। इसीलिए उनके मुद्दे बराबर तकनीकी तौर पर कमजोरी के शिकार हो जाते हैं। फिलहाल राजनीतिक मंचों द्वारा सामाजिक न्याय के हित में खासतौर से आरक्षण के जितने भी फैसले किए गए हैं, उन्हें तकनीकी आधार पर ही न्यायालयों ने या तो खारिज किया है या उन्हें उसी रूप में लागू करने से रोका है। कानून की ओर कदम भारतीय सामाजिक व्यवस्था में आरक्षण महज आंकड़ों का खेल नहीं है, बल्कि सामाजिक समानता के दर्शन की उपज है। राजनीतिक मंचों की जिम्मेदारी इसी रूप में सोचने और उस दिशा में कदम उठाने की होती है। संसद में आरक्षण पर भी सहमति देखने को मिली है और प्रमोशन में आरक्षण के मसले पर भी राजनीतिक दलों में सहमति बनी है। सामाजिक न्याय के मसले पर विधायिका बनाम न्यायपालिका का तीखा संघर्ष चलता आ रहा है। आरक्षण समर्थकों के बड़े वर्ग की न्यायपालिका से शिकायत रही है और आरक्षण का विरोधी पक्ष सदैव राजनीतिक फैसलों के खिलाफ न्यायपालिका से राहत की उम्मीद करता रहा है। संसदीय व्यवस्था में अपनी-अपनी क्षमताओं और ताकत के अनुसार विभिन्न सामाजिक शक्तियां उसके स्तंभों का इस्तेमाल अपने हित के लिए करती हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद संसद में प्रमोशन में आरक्षण कानून बनाने पर सहमति लगभग हो गई है। आरक्षण से संबंधित विवाद के मूल में हमेशा जाति का ही प्रश्न होता है। इसकी वजह यह है कि जाति को पिछड़ेपन का आधार नहीं मानने की जिद है, जबकि सुप्रीम कोर्ट भी जाति को पिछड़ेपन का आधार मानने से इन्कार नहीं कर सका है। आखिर कौन-सा ऐसा क्षेत्र है, जहां जातीय आधार पर दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के बीच वंचना की स्थिति नहीं देखी जाती है। महज आंकड़ों के जरिये यह एक नई बात सामने आई है कि देश में उद्योगों को चलाने वाले ऊंचे पदों पर 93 प्रतिशत लोग गैर पिछड़े, गैर दलित, गैर आदिवासी हैं। क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है कि तमाम तरह के उत्पादनों में दलित, पिछड़े और आदिवासी ही लगे रहे हैं, लेकिन नए उद्योगों में वे वंचित नजर आते हैं? अगर मान लिया जाए कि सरकार वंचित वर्गो को उद्योगों के लिए कर्ज और दूसरी सुविधाएं देती है तो क्या यह जातिवादी फैसला होगा? मजे की बात यह है कि सरकार के इस तरह के फैसलों का मुखर विरोध नहीं होता है, लेकिन सत्ता को संचालित करने वाले स्तंभों पर जैसे ही विशेष अवसर देने की वकालत की जाती है, उसका विरोध शुरू हो जाता है। क्या फर्क है प्रमोशन में आरक्षण देने में और नए किस्म का उद्योग चलाने के लिए सहायता देने में? तार्किक आधार पर तो कोई फर्क नहीं है, लेकिन निर्णायक पदों पर वर्चस्वशाली संस्कृति के प्रवक्ताओं से इतर कोई ऊंचे पदों पर बैठने की कोशिश करता है तो सवाल राष्ट्र, विकास, योग्यता आदि हथियारों के जरिये किया जाने लगता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में असमानता के मूल कारणों को लंबे अरसे तक नहीं दबाया जा सकता है।
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