शिक्षा के अवरोध दूसरी से आठवीं कक्षा तक बच्चों को फेल न करने की नीति का दुष्प्रभाव अब सभी को नजर आने लगा है। ताज्जुब है कि शिक्षा का अधिकार कानून के साइड इफेक्ट्स देखने के लिए चार साल तक इंतजार क्यों किया गया? समय रहते प्रयोग के तौर पर लागू किए गए इस प्रावधान को रोकने के लिए आवाज उठाई जाती तो आज शिक्षा विभाग से लेकर
मंत्री तक को त्रहि-त्रहि न करनी पड़ती। प्रदेश के शिक्षा मंत्री ने केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड यानी कैब की बैठक में नो डिटेंशन पॉलिसी पर खुल कर रोष जताते हुए शिक्षा के गिरते स्तर के लिए इसे सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहराया है। बैठक में सभी राज्यों के प्रतिनिधियों ने इस बात पर सहमति जताई कि आठवीं तक विद्यार्थियों को फेल न करने की नीति शिक्षा ढांचे के विकास में सबसे बड़ी बाधा बन चुकी है और यदि इससे छुटकारा नहीं पाया गया तो इतना नुकसान हो जाएगा जिसे पूरा करना असंभव होगा। वैसे, कैब की बैठक में इस नीति को बदलने को मंजूरी भी दे दी गई। अब तस्वीर को हरियाणा के संदर्भ में देखे जाने की आवश्यकता है। पिछले तीन साल के दौरान सरकारी स्कूलों के दसवीं और बारहवीं के परीक्षा परिणाम में चिंताजनक स्तर तक गिरावट आई है। 1 शिक्षा विभाग की ओर से पास प्रतिशत बढ़ाने के लिए तमाम जुगाड़ करने के बाद भी शर्मनाक स्थिति नहीं बचा जा सका। बकौल मंत्री, नो डिटेंशन पॉलिसी से शिक्षा का अत्यधिक व्यापारीकरण हो गया व शिक्षा स्तर में भारी गिरावट आई है। ऐसे ही विचार पूर्ववर्ती सरकार के शिक्षा मंत्री ने भी कैब की बैठक में व्यक्त किए थे लेकिन अहम पहलू यह है कि इस नीति से छुटकारा पाने के लिए न राज्य सरकार केंद्र पर दबाव बनाने में कामयाब हुई, न ही अन्य राज्यों का समर्थन जुटाने में। यह कड़वा सच है कि शिक्षा का अधिकार कानून के प्रावधानों से हरियाणा के शिक्षा ढांचे को घातक क्षति पहुंच चुकी, इस पर विडंबना यह भी है कि शिक्षकों के हजारों पद खाली होने के कारण सामान्य पाठ्यक्रम भी पूरा होता दिखाई नहीं दे रहा तो क्षतिपूर्ति के लिए अतिरिक्त पढ़ाई करवाने पर सोचा भी कैसे जा सकता है? इस समय सरकार की प्राथमिकता अध्यापकों के रिक्त पद भरने के साथ शिक्षा का अधिकार कानून से हुए नुकसान की भरपाई करने की भी होनी चाहिए। शिक्षा पद्धति को प्रतिस्पर्धी बनाए बिना काम नहीं चलने वाला।
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